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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 105/ मन्त्र 3
यथा॒ सूर्य॑स्य र॒श्मयः॑ परा॒पत॑न्त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त समु॒द्रस्यानु॑ विक्ष॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । सूर्य॑स्य । र॒श्मय॑: । प॒रा॒ऽपत॑न्ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । स॒मु॒द्रस्य॑ । अनु॑ । वि॒ऽक्ष॒रम् ॥१०५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सूर्यस्य रश्मयः परापतन्त्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत समुद्रस्यानु विक्षरम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सूर्यस्य । रश्मय: । पराऽपतन्ति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । समुद्रस्य । अनु । विऽक्षरम् ॥१०५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 105; मन्त्र » 3
विषय - यथा सूर्यस्य रश्मयः
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे उदय के पश्चात् (सूर्यस्य रश्मयः) = सूर्य की किरणें (आशुमत् परापतन्ति) = शीघ्रता से सुदूर पहुँच जाती हैं, (एव) = उसी प्रकार हे (कासे) = श्लेष्मरोग! (त्वम्) = तू (समुद्रस्य) = समुद्र के (विक्षरम् अनु) = विविध क्षरणवाले देश का लक्ष्य करके (अनु प्रपत) = शीघ्रता से दूर जा। इस पुरुष को छोड़कर तू सूर्य-रश्मियों को भौति शीघ्र समुद्रपर्यन्त चला जा।
भावार्थ -
कासा हमसे इसप्रकार दूर भाग जाए जैसेकि सूर्य-रश्मियों समुद्रपर्यन्त देशों में जा पहुँचती हैं।
विशेष -
रोगों से बचने के लिए गृहों का उचित निर्माण नितान्त आवश्यक है। घर का उचित निर्माण करके रोगों को दूर रखनेवाला 'प्रमोचन' अगले सूक्त का ऋषि-द्रष्टा है।