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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 118/ मन्त्र 3
यस्मा॑ ऋ॒णं यस्य॑ जा॒यामु॒पैमि॒ यं याच॑मानो अ॒भ्यैमि॑ देवाः। ते वाचं॑ वादिषु॒र्मोत्त॑रां॒ मद्देव॑पत्नी॒ अप्स॑रसा॒वधी॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मै॑ । ऋ॒णम् । यस्य॑ । जा॒याम् । उ॒प॒ऽऐमि॑ । यम् । याच॑मान: । अ॒भि॒ऽऐमि॑ । दे॒वा॒: । ते । वाच॑म् । वा॒दि॒षु॒: । मा । उत्त॑राम् । मत् । देव॑प॒त्नी इति॒ देव॑ऽपत्नी । अप्स॑रसौ । अधि । इ॒त॒म् ॥११८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मा ऋणं यस्य जायामुपैमि यं याचमानो अभ्यैमि देवाः। ते वाचं वादिषुर्मोत्तरां मद्देवपत्नी अप्सरसावधीतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मै । ऋणम् । यस्य । जायाम् । उपऽऐमि । यम् । याचमान: । अभिऽऐमि । देवा: । ते । वाचम् । वादिषु: । मा । उत्तराम् । मत् । देवपत्नी इति देवऽपत्नी । अप्सरसौ । अधि । इतम् ॥११८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 118; मन्त्र » 3
विषय - अनिरादर
पदार्थ -
१. (यस्मै) = जिस उत्तमर्ण के लिए (ऋणम्) = मैं ऋण धारण करता हूँ, (यस्य जायाम् उपैमि) = जिसकी पत्नी को अनुनय-विनय के लिए मैं प्राप्त होता हूँ-ऋण के लिए खुशामद-सी करता हूँ। अथवा (यम्) = जिस उत्तमर्ण को (याचमानः) = इष्ट धन के लिए प्रार्थना करता हुआ हे (देवा:) = देवो! (अभि आ एमि) = मैं सम्मुख प्राप्त होता हूँ, (ते) = वे (उत्तरां वाचम् मा वादिष:) = उलटी-प्रतिकूल वाणी को न बोलें। मैं कभी विषयासक्त होकर ऋण लौटाने में असमर्थ होकर उत्तमों के द्वारा किये जानेवाले निरादर का पात्र न होऊँ। २. हे (देवपत्नी) = आत्मा की पत्नीरूप ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप (अप्सरसौ) = अप्सराओ [कर्मों में व्याप्त होनेवाली इन्द्रियो]! आप (मत् अधीतम्) = मेरे इस उपर्युक्त विज्ञान को अच्छी प्रकार समझ लो-चित्त में धारण कर लो।
भावार्थ -
विषयासक्ति हमें कभी ऋणपंक में न डुबा दे। हम ऋण लौटाने की अक्षमतावाले होकर कभी निरादर के पात्र न हो जाएँ।
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