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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 118/ मन्त्र 2
उग्रं॑पश्ये॒ राष्ट्र॑भृ॒त्किल्बि॑षाणि॒ यद॒क्षवृ॑त्त॒मनु॑ दत्तं न ए॒तत्। ऋ॒णान्नो॒ नर्णमेर्त्स॑मानो य॒मस्य॑ लो॒के अधि॑रज्जु॒राय॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठउग्रं॑पश्ये॒ इत्युग्र॑म्ऽपश्ये । राष्ट्र॑ऽभृत् । किल्बि॑षाणि । यत् । अ॒क्षऽवृ॑त्तम् । अनु॑ । द॒त्त॒म् । न॒: । ए॒तत् । ऋ॒णात् । न॒: । न । ऋ॒णम् । एर्त्स॑मान: । य॒मस्य॑ । लो॒के । अधि॑ऽरज्जु: । आ । अ॒य॒त् ॥११८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत्किल्बिषाणि यदक्षवृत्तमनु दत्तं न एतत्। ऋणान्नो नर्णमेर्त्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुरायत् ॥
स्वर रहित पद पाठउग्रंपश्ये इत्युग्रम्ऽपश्ये । राष्ट्रऽभृत् । किल्बिषाणि । यत् । अक्षऽवृत्तम् । अनु । दत्तम् । न: । एतत् । ऋणात् । न: । न । ऋणम् । एर्त्समान: । यमस्य । लोके । अधिऽरज्जु: । आ । अयत् ॥११८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 118; मन्त्र » 2
विषय - अस्मान् अधिरजः न आयत्
पदार्थ -
१. हे (उग्रंपश्ये) = उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करानेवाली ज्ञानेन्द्रियो! हे (राष्ट्रभृत्) = इस शरीर-राष्ट्र का भरण करनेवाली कर्मेन्द्रियो! जो हमारे द्वारा किये गये (किल्बिषाणि) = पाप हैं, (यत्) = और जो (अक्षवृत्तम्) = इन्द्रियों से पाप निष्पन्न हो गया है, (न:) = हमारे (एतत्) = इस ऋण ले-लेने आदि सब पापों को (अनुदत्तम्) = आनुकूल्येण निवारित करो। ऋणादि को लौटाकर आगे से हम इस मार्ग पर न जाने का निश्चय करें। २. (ऋणात्) = [भावप्रधानो निर्देश:-ऋणित्वात्] ऋणी होने के कारण (न:) = हमें (यमस्य लोके) = पुण्य-पापानुसार दण्ड देनेवाले सर्वनियन्ता प्रभु के इस लोक में (ऋणम् एत्स॑मानः) = ऋण को सदा बढ़ाने की इच्छा करता हुआ यह उत्तमर्ण [ऋध+सन] (अधिरजाः) = हमारे बन्धन के लिए पाशहस्त होकर न (आयत्) = प्राप्त न हो। हम इसके ऋण को न बढ़ने दें और पिछले ऋण को लौटाकर पाप-निवृत्त हो जाएँ।
भावार्थ -
इन्द्रियों के विषय-प्रवण होने पर मनुष्य ऋण आदि लेने को बाध्य होता है। उन्हें न चुकाने पर बन्धन में पड़ता है। प्रभुकृपा से हम इस मार्ग से दूर रहें।
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