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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 121

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 121/ मन्त्र 2
    सूक्त - कौशिक देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त

    यद्दारु॑णि ब॒ध्यसे॒ यच्च॒ रज्ज्वां॒ यद्भूम्यां॑ ब॒ध्यसे॒ यच्च॑ वा॒चा। अ॒यं तस्मा॒द्गार्ह॑पत्यो नो अ॒ग्निरुदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । दारु॑णि । ब॒ध्यसे॑ । यत् । च॒ । रज्ज्वा॑म् । यत् । भूम्या॑म् । ब॒ध्यसे॑ । यत् । च॒ । वा॒चा । अ॒यम् । तस्मा॑त् । गार्ह॑ऽपत्य: । न॒: । अ॒ग्नि: । उत् । इत् । न॒या॒ति॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥१२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्दारुणि बध्यसे यच्च रज्ज्वां यद्भूम्यां बध्यसे यच्च वाचा। अयं तस्माद्गार्हपत्यो नो अग्निरुदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । दारुणि । बध्यसे । यत् । च । रज्ज्वाम् । यत् । भूम्याम् । बध्यसे । यत् । च । वाचा । अयम् । तस्मात् । गार्हऽपत्य: । न: । अग्नि: । उत् । इत् । नयाति । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥१२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 121; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो तू (दारुणि) = [ore] इन सोना-चाँदी आदि धातुओं में (बध्यसे) = बद्ध हो जाता है-सोने व चाँदी के मोह में फंस जाता है (च) = और (यत्) = जो (रज्ज्वाम्) = बालों के गुम्फनविशेषों में [alock of braided hair] आसक्त हो जाता है। एक युवति नाना प्रकार से बालों का गुम्फन करती हुई अपने को सुन्दर बनाने में आसक्त हो जाती है। (यत् भूम्यां बध्यसे) = जो तु भूमि में बाँधा जाता है, अधिकाधिक भूमि के स्वामित्व के लिए लालायित हो जाता है, (च) = और (यत्) = जो (वाचा) = वाणी से तू बद्ध होता है-बोलने का व्यसन लग जाता है-मौन रहना कठिन हो जाता है, (अयम्) = यह (गार्हपत्यः अग्नि:) = गृहों का रक्षण करनेवाला यज्ञिय-अग्नि (तस्मात्) = उस सब बन्धन से (न:) = हमें (इत्) = निश्चय से (उन्नयाति) = बाहर प्राप्त कराता है और (सुकृतस्य लोकम्) = हमें पुण्य के लोक में ले-चलता है।

    भावार्थ -

    यज्ञिय वृत्ति होने पर हमारे 'सोने-चाँदी, बालों का सौन्दर्य, भूमि-संग्रह व बहुत बोलने' आदि के बन्धन विनष्ट हो जाते हैं।

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