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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 125/ मन्त्र 2
दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ उद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्याभृ॑तं॒ सहः॑। अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑तमिन्द्रस्य॒ वज्रं॑ हविषा॒ रथं॑ यज ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । पृ॒थि॒व्या:। परि॑ । ओज॑: । उत्ऽभृ॑तम् । वन॒स्पति॑ऽभ्य: । परि॑ । आऽभृ॑तम् । सह॑: । अ॒पाम् । ओ॒ज्मान॑म् । परि॑ । गोभि॑: । आऽवृ॑तम् । इन्द्र॑स्य । वज्र॑म् । ह॒विषा॑ । रथ॑म् । य॒ज॒ ॥१२५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्पृथिव्याः पर्योज उद्भृतं वनस्पतिभ्यः पर्याभृतं सहः। अपामोज्मानं परि गोभिरावृतमिन्द्रस्य वज्रं हविषा रथं यज ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । पृथिव्या:। परि । ओज: । उत्ऽभृतम् । वनस्पतिऽभ्य: । परि । आऽभृतम् । सह: । अपाम् । ओज्मानम् । परि । गोभि: । आऽवृतम् । इन्द्रस्य । वज्रम् । हविषा । रथम् । यज ॥१२५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 125; मन्त्र » 2
विषय - शरीर-रथ
पदार्थ -
१. 'यह शरीर-रथ क्या है? इसका विवेचन करते हुए कहते हैं कि इसमें (दिव:) = मस्तिष्करूप धुलोक का तथा (पृथिव्याः) = अन्नमयकोशरूप पृथिवी का (ओज:) = बल (परि उद्भतम्) = सब प्रकार से धारण किया गया है। इस शरीर में (वनस्पतिभ्यः) = वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से (सहः) = शत्रुमर्षक बल (पर्याभृतम्) = चारों ओर-अङ्ग-प्रत्यङ्ग में भूत हुआ है। २. इस (अपाम् ओज्मानम्) = [आपो रेतो भूत्वा०] रेत:कणों के बलवाले (गोभिः परि आवृतम्) = ज्ञानरश्मियों से समन्तात् आच्छादित (इन्द्रस्य वज्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष के आयुध के समान (रथम्) = इस शरीर-रथ को (हविषा यज) = दानपूर्वक अदन से युक्त कर। यज्ञशेष के सेवन के द्वारा इसे नीरोग व अमर बना-'यज्ञशेषममृतम्'।
भावार्थ -
इस शरीर में हम मस्तिष्क व शरीर दोनों को ही सबल बनाएँ। वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से इसे रोगनिरोधक शक्ति से युक्त करें। यह रेत:कणों के बलवाला हो। ज्ञानरश्मियों से आवृत हो। रोगरूप शत्रुओं के लिए वजहो। यज्ञशेष के सेवन द्वारा हम इसे नीरोग बनाएँ।
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