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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
यत्पिबा॑मि॒ सं पि॑बामि समु॒द्र इ॑व संपि॒बः। प्रा॒णान॒मुष्य॑ सं॒पाय॒ सं पि॑बामो अ॒मुं व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । पिबा॑मि । सम् । पि॒बा॒मि॒ । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । स॒म्ऽपि॒ब: । प्रा॒णान् । अ॒मुष्य॑ । स॒म्ऽपाय॑ । सम् । पि॒बा॒म॒: । अ॒मुम् । व॒यम् ॥१३५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पिबामि सं पिबामि समुद्र इव संपिबः। प्राणानमुष्य संपाय सं पिबामो अमुं वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । पिबामि । सम् । पिबामि । समुद्र:ऽइव । सम्ऽपिब: । प्राणान् । अमुष्य । सम्ऽपाय । सम् । पिबाम: । अमुम् । वयम् ॥१३५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 135; मन्त्र » 2
विषय - सं-पान-संगरण
पदार्थ -
१. (यत् पिबामि) = मैं जो जल पीता हूँ तो (संपिबामि) = शत्रु का निग्रह करके उसके रस को ही पी जाता है, उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (समुद्रः) = समुद्र नदीमुख से सारे जल को लेकर (संपिबः) = सम्यक् पी जाता है। (वयम्) = हम भी (अमुष्य) = उस शत्रु के (प्राणान् संपाय) = प्राणापान आदि व्यापार को पीकर (अमुम्) = उस शत्रु को ही (संपिबाम:) = पी जाते हैं। २. (यत् गिरामि) = जो कुछ मैं खाता हूँ तो (संगिरामि) = शत्रु को ही निगल जाता हूँ। (इव) = जैसेकि (समुद्रः) = समुद्र (संगिरः) = नदी-जल को निगीर्ण कर लेता है। (वयम्) = हम भी (अमुष्य) = उस शत्रु के (प्रणान् संगीर्य) = प्राणों को निगलकर (अमुं संगिरामः) = उस शत्र को ही निगल जाते हैं।
भावार्थ -
हम खाते-पीते इस दृष्टिकोण को न भूलें कि इस खान-पान से शक्ति का सम्पादन करके शत्रुओं को ही खा-पी जाना है, स्वाद का दृष्टिकोण तो हमें ही शत्रुओं का शिकार बना देगा।
विशेष -
स्वस्थ शरीर के लिए वीतहव्य-पवित्र पदार्थों को खानेवाला ही होना चाहिए। यह 'वीतहव्य' शरीर को स्वस्थ बनाता हुआ अपने केशों को भी सुदृढ बनाता है। अगले दो सूक्तों का ऋषि यही है।