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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 137

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 137/ मन्त्र 2
    सूक्त - वीतहव्य देवता - नितत्नीवनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - केशवर्धन सूक्त

    अ॒भीशु॑ना॒ मेया॑ आसन्व्या॒मेना॑नु॒मेयाः॑। केशा॑ न॒डा इ॑व वर्धन्तां शी॒र्ष्णस्ते॑ असि॒ताः परि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भीशु॑ना: । मेया॑: । आ॒स॒न् । वि॒ऽआ॒मेन॑ । अ॒नु॒ऽमेया॑: । केशा॑: । न॒डा:ऽइ॑व । व॒र्ध॒न्ता॒म् । शी॒र्ष्ण: । ते॒ । अ॒सि॒ता: । परि॑ ॥१३७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीशुना मेया आसन्व्यामेनानुमेयाः। केशा नडा इव वर्धन्तां शीर्ष्णस्ते असिताः परि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभीशुना: । मेया: । आसन् । विऽआमेन । अनुऽमेया: । केशा: । नडा:ऽइव । वर्धन्ताम् । शीर्ष्ण: । ते । असिता: । परि ॥१३७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 137; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे केशाभिवृद्धिकाम पुरुष! तेरे बाल जो पहले (अभीशुना) = अंगुलियों में (मेयाः आसन्) = चार अंगल-इसप्रकार मापने योग्य थे। अब (व्यामेन) = प्रसारित हस्तद्वय परिमाण से (अनुमेयाः) = परिच्छेद्य [मापने योग्य] हो गये हैं। है (ओषधे) = ओषधे! तू (मूलं दृह) = केशों के मूल को दृढ़ कर, (अग्नम् आयच्छ) = इन केशों के अग्रभाग को आयामयुक्त कर तथा (मध्यं वियामय) = [यमय] मध्यभाग को विशेषरूप से स्थिर कर। २. हे पुरुष! (ते) = तेरे (शीर्ण: परि) = सिंर के चारों ओर (असितः केशा:) = ये काले-काले बाल (नडाः इव वर्धन्ताम्) = तृणविशेषों की भाँति खूब बढ़ जाएँ।

    भावार्थ -

    केशवर्धनी के प्रयोग से अंगुलियों से मापने योग्य बाल हाथों से मापने योग्य हो जाते हैं। उनका मूल, अग्न व मध्य-सब दृढ़ व आयत हो जाता है। ये काले-काले बाल नड़ों [तृणों] की भाँति बढ़ जाते हैं।

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