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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 137/ मन्त्र 3
सूक्त - वीतहव्य
देवता - नितत्नीवनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - केशवर्धन सूक्त
दृंह॒ मूल॒माग्रं॑ यच्छ॒ वि मध्यं॑ यामयौषधे। केशा॑ न॒डा इ॑व वर्धन्तां शी॒र्ष्णस्ते॑ असि॒ताः परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदृंह॑ । मूल॑म् । आ । अग्र॑म् । य॒च्छ॒ । वि । मध्य॑म् । य॒म॒य॒ । ओ॒ष॒धे॒ । केशा॑: । न॒डा:ऽइ॑व । व॒र्ध॒न्ता॒म् । शी॒र्ष्ण: । ते॒ । अ॒सि॒ता: । परि॑ ॥१३७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दृंह मूलमाग्रं यच्छ वि मध्यं यामयौषधे। केशा नडा इव वर्धन्तां शीर्ष्णस्ते असिताः परि ॥
स्वर रहित पद पाठदृंह । मूलम् । आ । अग्रम् । यच्छ । वि । मध्यम् । यमय । ओषधे । केशा: । नडा:ऽइव । वर्धन्ताम् । शीर्ष्ण: । ते । असिता: । परि ॥१३७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 137; मन्त्र » 3
विषय - अभीशुना व्यामेन
पदार्थ -
१. हे केशाभिवृद्धिकाम पुरुष! तेरे बाल जो पहले (अभीशुना) = अंगुलियों में (मेयाः आसन्) = चार अंगल-इसप्रकार मापने योग्य थे। अब (व्यामेन) = प्रसारित हस्तद्वय परिमाण से (अनुमेयाः) = परिच्छेद्य [मापने योग्य] हो गये हैं। है (ओषधे) = ओषधे! तू (मूलं दृह) = केशों के मूल को दृढ़ कर, (अग्नम् आयच्छ) = इन केशों के अग्रभाग को आयामयुक्त कर तथा (मध्यं वियामय) = [यमय] मध्यभाग को विशेषरूप से स्थिर कर। २. हे पुरुष! (ते) = तेरे (शीर्ण: परि) = सिंर के चारों ओर (असितः केशा:) = ये काले-काले बाल (नडाः इव वर्धन्ताम्) = तृणविशेषों की भाँति खूब बढ़ जाएँ।
भावार्थ -
केशवर्धनी के प्रयोग से अंगुलियों से मापने योग्य बाल हाथों से मापने योग्य हो जाते हैं। उनका मूल, अग्न व मध्य-सब दृढ़ व आयत हो जाता है। ये काले-काले बाल नड़ों [तृणों] की भाँति बढ़ जाते हैं।
विशेष -
विशेष-अगले तीन सूक्तों का ऋषि 'अथर्वा' है-स्थिर वृत्तिवाला। यह अपने को स्वस्थ व शक्तिशाली बनाता है।