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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 141/ मन्त्र 2
सूक्त - विश्वामित्र
देवता - अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गोकर्णलक्ष्यकरण सूक्त
लोहि॑तेन॒ स्वधि॑तिना मिथु॒नं कर्ण॑योः कृधि। अक॑र्तामश्विना॒ लक्ष्म॒ तद॑स्तु प्र॒जया॑ ब॒हु ॥
स्वर सहित पद पाठलोहि॑तेन । स्वऽधि॑तिना । मि॒थु॒नम् । कर्ण॑यो: । कृ॒धि॒ । अक॑र्ताम् । अ॒श्विना॑ । लक्ष्म॑ । तत् । अ॒स्तु॒ । प्र॒ऽजया॑ । ब॒हु ॥१४१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
लोहितेन स्वधितिना मिथुनं कर्णयोः कृधि। अकर्तामश्विना लक्ष्म तदस्तु प्रजया बहु ॥
स्वर रहित पद पाठलोहितेन । स्वऽधितिना । मिथुनम् । कर्णयो: । कृधि । अकर्ताम् । अश्विना । लक्ष्म । तत् । अस्तु । प्रऽजया । बहु ॥१४१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 141; मन्त्र » 2
विषय - गोवत्सों का कर्णवेध
पदार्थ -
१. हे गोपाल! (लोहितेन) = लोहितवर्ण ताम्रविकार (स्वधितिना) = शस्त्र से (कर्णयो:) = वत्स सम्बन्धी कानों में (मिथुनं कृधि) = स्त्री-पुंसात्मक चिह्न कर। (अश्विनी) = गृहस्थ दम्पती [माता पिता] लक्ष्म (अकर्ताम्) = इस चिह्न को करें। (तत्) = वह चिह्न (प्रजया बहु अस्तु) = पुत्र-पौत्रादि प्रजा से समृद्ध हो, अर्थात् कानों में किया गया वह चिह्न हमारे गोधन की समृद्धि का कारण बने।
भावार्थ -
अपनी गौओं के बछड़ों के कानों में गृहस्थ दम्पती गोपालों द्वारा ताम्रशस्त्र से चिह कराएँ [कर्णवेध कराएँ]। यह चिह्न गोसन्तति की वृद्धि के लिए आवश्यक है।
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