अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 141/ मन्त्र 2
ऋषिः - विश्वामित्र
देवता - अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गोकर्णलक्ष्यकरण सूक्त
63
लोहि॑तेन॒ स्वधि॑तिना मिथु॒नं कर्ण॑योः कृधि। अक॑र्तामश्विना॒ लक्ष्म॒ तद॑स्तु प्र॒जया॑ ब॒हु ॥
स्वर सहित पद पाठलोहि॑तेन । स्वऽधि॑तिना । मि॒थु॒नम् । कर्ण॑यो: । कृ॒धि॒ । अक॑र्ताम् । अ॒श्विना॑ । लक्ष्म॑ । तत् । अ॒स्तु॒ । प्र॒ऽजया॑ । ब॒हु ॥१४१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
लोहितेन स्वधितिना मिथुनं कर्णयोः कृधि। अकर्तामश्विना लक्ष्म तदस्तु प्रजया बहु ॥
स्वर रहित पद पाठलोहितेन । स्वऽधितिना । मिथुनम् । कर्णयो: । कृधि । अकर्ताम् । अश्विना । लक्ष्म । तत् । अस्तु । प्रऽजया । बहु ॥१४१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वृद्धि करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे आचार्य !] (लोहितेन) प्रकाश के साथ और (स्वधितिना) और आत्मधारण सामर्थ्य के साथ (कर्णयोः) हमारे दोनों कानों में (मिथुनम्) विज्ञान (कृधि) कर। (अश्विना) कामों में व्याप्तिवाले माता-पिता ने (लक्ष्म) [हम में] शुभ लक्षण (अकर्ताम्) किया है (तत्) वह [शुभलक्षण] (प्रजया) सन्तान के साथ (बहु) अधिक समृद्ध (अस्तु) होवे ॥२॥
भावार्थ
जहाँ गुणी माता-पिता और आचार्य बालकों के शिक्षक होते हैं, वहाँ बालक गुणी धनी और बली होते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(लोहितेन) अ० ६।१२७।१। प्रादुर्भावेन प्रकाशेन सह (स्वधितिना) स्व+धि धारणे−क्तिन्। आत्मधारणेन (मिथुनम्) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। इति मिथृ वधे मेधायां च−उनन्। विज्ञानम् (कर्णयोः) कॄवृजॄ०। उ० ३।१०। इति कॄ विक्षेपे−न। श्रोत्रयोः (कृधि) कुरु (अकर्ताम्) कृतवन्तौ (अश्विना) अ० २।२९।६। कार्येषु व्यापकौ मातापितरौ (लक्ष्म) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति लक्ष दर्शनाङ्कनयोः आलोचने च−मनिन्। शुभलक्षणम् (तत्) लक्ष्म (अस्तु) (प्रजया) सन्तत्या (बहु) बहुलं समृद्धम् ॥
विषय
गोवत्सों का कर्णवेध
पदार्थ
१. हे गोपाल! (लोहितेन) = लोहितवर्ण ताम्रविकार (स्वधितिना) = शस्त्र से (कर्णयो:) = वत्स सम्बन्धी कानों में (मिथुनं कृधि) = स्त्री-पुंसात्मक चिह्न कर। (अश्विनी) = गृहस्थ दम्पती [माता पिता] लक्ष्म (अकर्ताम्) = इस चिह्न को करें। (तत्) = वह चिह्न (प्रजया बहु अस्तु) = पुत्र-पौत्रादि प्रजा से समृद्ध हो, अर्थात् कानों में किया गया वह चिह्न हमारे गोधन की समृद्धि का कारण बने।
भावार्थ
अपनी गौओं के बछड़ों के कानों में गृहस्थ दम्पती गोपालों द्वारा ताम्रशस्त्र से चिह कराएँ [कर्णवेध कराएँ]। यह चिह्न गोसन्तति की वृद्धि के लिए आवश्यक है।
भाषार्थ
[हे वैद्य !] (लोहितेन स्वधितिना) सुवर्ण के, लोहे के, या लाल ताम्बे के शस्त्र द्वारा (कर्णयोः) दोनों कानों का (मिथुनम्) वेध (कृधि) कर। (लक्ष्य) कर्ण वेध चिह्न को (अश्विना) देवों के दो भिषक् (अकर्ताम्) निजनिरीक्षण में करें। (तद्) वह वेध चिह्न (प्रजया) प्रजा की बहुत्व सख्या द्वारा (बहु) बहुसंख्यक हो।
टिप्पणी
[लोहम् हिरण्यनाम (निघं० १।२)। मिथुनम्= मिथृ मेथृ हिंसायाम्, इत्येके (भ्वादिः)। कर्णवेध एक प्रकार से कर्ण की हिंसारूप ही है। कर्ण वेध बाल-बालिका दोनों का होना चाहिये। कर्णवेध में नानारोग निवृत्त हो जाते हैं। बाल और बालिका के कानों के किस-किस स्थान में वेध करना चाहिये इसे कुशल वैद्य ही जान सकते हैं। कर्णवेध तीसरे या पांचवें वर्ष में होने का विधान है। कर्णवेध के सम्बन्ध में विशेष ज्ञान के लिये देखी "संस्कार चन्द्रिका", द्वारा डाक्टर सत्यव्रत सिद्धान्तालङ्कार, विजयकृष्ण लखन पाल, ४।२४ आसफ अली रोड, नई दिल्ली १।]
विषय
माता पिता का सन्तान के प्रति कर्तव्य। नामकरण और कर्णवेध का उपदेश।
भावार्थ
हे पुरुष ! तू (लोहितेन) लाल तपा कर शीतल हुई (स्वधितिना) शलाका द्वारा (कर्णयोः) दोनों कानों में (मिथुनम्) छिद्र (कृधि) कर। हे (अश्विना) माता पिता (लक्ष्म अकर्त्ताम्) ऐसा चिह्न या नाम रक्खो जो (प्रजया) सन्तति के साथ साथ (तद् बहु अस्तु) वह बहुत गुणकारी हो। इस मन्त्र में कर्णवेध और नामकरण का उपदेश किया गया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। अश्विनौ देवते। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Growth and Development
Meaning
Let Rudra, by natural predilection and individual interest and potential, join them into married couples in practical complementary fields of life. Let the Ashvins, husband wife, then, make a mark in life, and let the couple, thus, grow and profusely prosper with progeny.
Translation
With a red blade make a pair of marks on their both the ears. May the twins divine (physicians and surgeons) make the mark. May that make them multiply with progeny (to large numbers).
Translation
O man! pierce the ears of the child with hot wire of gold whatever good thing the father and mother have impressed may increase more and more with the growth of progeny.
Translation
O preceptor, with the luster of thy knowledge and spiritual force fill our ears with knowledge. Our parents have imbued us with a noble quality, that will multiply our progeny!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(लोहितेन) अ० ६।१२७।१। प्रादुर्भावेन प्रकाशेन सह (स्वधितिना) स्व+धि धारणे−क्तिन्। आत्मधारणेन (मिथुनम्) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। इति मिथृ वधे मेधायां च−उनन्। विज्ञानम् (कर्णयोः) कॄवृजॄ०। उ० ३।१०। इति कॄ विक्षेपे−न। श्रोत्रयोः (कृधि) कुरु (अकर्ताम्) कृतवन्तौ (अश्विना) अ० २।२९।६। कार्येषु व्यापकौ मातापितरौ (लक्ष्म) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति लक्ष दर्शनाङ्कनयोः आलोचने च−मनिन्। शुभलक्षणम् (तत्) लक्ष्म (अस्तु) (प्रजया) सन्तत्या (बहु) बहुलं समृद्धम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal