Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
सूक्त - शौनक्
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री
सूक्तम् - अक्षिरोगभेषज सूक्त
अ॑ल॒साला॑सि॒ पूर्वा॑ सि॒लाञ्जा॑ला॒स्युत्त॑रा। नी॑लागल॒साला॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ल॒साला॑ । अ॒सि॒ । पूर्वा॑ । सि॒लाञ्जा॑ला । अ॒सि॒ । उत्त॑रा । नी॒ला॒ग॒ल॒साला॑ ॥१६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अलसालासि पूर्वा सिलाञ्जालास्युत्तरा। नीलागलसाला ॥
स्वर रहित पद पाठअलसाला । असि । पूर्वा । सिलाञ्जाला । असि । उत्तरा । नीलागलसाला ॥१६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
विषय - अलसाला, सिलाञ्जाला, नीलागलसाला
पदार्थ -
१. हे प्रकृते! तू (पूर्वा) = सर्वप्रथम (अ-लसाला असि) = न चमकती हुई-अव्यक्त-सी है। प्रलयकाल में प्रकृति चमक नहीं रही होती। यह उसकी अव्यक्त अवस्था होती है। (उत्तरा) = इसके पश्चात् सृष्टिकाल में तू (सिलाञ्जाला असि) = [सिला अन्न आला] कण-कण में व्यापक जगत् को प्रकट करने में समर्थ होती है-अव्यक्त से तू व्यक्त हो जाती है। २. अब अन्त में (नीलागलसाला) = [नील-आगल, साला पल गतौ] सब शरीर-गृहरूप नीड़ों को निगल जाने में गतिवाली होती है। सब शरीर इस अव्यक्त प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और अन्त में इस अव्यक्त प्रकृति में ही लीन हो जाते हैं ('अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।')
भावार्थ -
हम प्रकृति के स्वरूप को समझें। उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय के स्वरूप को समझते हुए इस प्रकृति में फँसे नहीं और अपने जीवन को सुन्दर बनाएँ।
विशेष -
अगले सूक्त का ऋषि 'अथर्वा' है-अर्थ अर्वाड्-आत्म-निरीक्षण करनेवाला। यह व्यक्ति अपने जीवन को उत्तम बनाता हुआ उत्तम सन्तान का निर्माण करता है। यह अपनी पत्नी से कहता है -