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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - ईर्ष्याविनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्याविनाशन सूक्त
अ॒दो यत्ते॑ हृ॒दि श्रि॒तं म॑न॒स्कं प॑तयिष्णु॒कम्। तत॑स्त ई॒र्ष्यां मु॑ञ्चामि॒ निरू॒ष्माणं॒ दृते॑रिव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द: । यत् । ते॒ ।हृ॒दि । श्रि॒तम् । म॒न॒:ऽकम् । प॒त॒यि॒ष्णु॒कम् । तत॑: । ते॒ । ई॒र्ष्याम् । मु॒ञ्चा॒मि॒ । नि: । ऊ॒ष्माण॑म् । दृंते॑:ऽइव ॥१८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अदो यत्ते हृदि श्रितं मनस्कं पतयिष्णुकम्। ततस्त ईर्ष्यां मुञ्चामि निरूष्माणं दृतेरिव ॥
स्वर रहित पद पाठअद: । यत् । ते ।हृदि । श्रितम् । मन:ऽकम् । पतयिष्णुकम् । तत: । ते । ईर्ष्याम् । मुञ्चामि । नि: । ऊष्माणम् । दृंते:ऽइव ॥१८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
विषय - मनस्कं पतयिष्णुकम्
पदार्थ -
१. (अदः) = वह (यत्) = जो (मनस्कम्) = छोटा मन [अल्पे हस्ये कन्]-तंग दिल (ते हृदि श्रितम्) = तेरे हृदय में रक्खा है, वह पतयिष्णकम् तुझे गिरानेवाला है। २. (तत:) = वहाँ से-उस मन से (ते) = तेरी (ईष्याम्) = इस ईर्ष्या को (मुञ्चामि) = छुड़ाता हूँ। उसी प्रकार (इव) = जैसे (इते:) = चर्म की बनी धौंकनी से (ऊष्माणं नि:) = गर्म वायु को फूंककर बाहर कर देते हैं।
भावार्थ -
जब मनुष्य तंग दिल होता है तब ईर्ष्या का शिकार हो जाता है। यह उसके पतन का कारण बनती है, अत: ईर्ष्या को समाप्त करना ही ठीक है।
विशेष -
ईर्ष्या-विनाश से अपने मन में शान्ति का विस्तार करनेवाला यह 'शन्ताति' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।