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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
    सूक्त - शन्ताति देवता - चन्द्रमाः, देवजनः, मनुवंशी, समस्तप्राणिनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पावमान सूक्त

    पु॒नन्तु॑ मा देवज॒नाः पु॒नन्तु॒ मन॑वो धि॒या। पु॒नन्तु॒ विश्वा॑ भू॒तानि॒ पव॑मानः पुनातु मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒नन्तु॑ । मा॒ । दे॒व॒ऽज॒ना: । पु॒नन्तु॑ । मन॑व: । धि॒या । पु॒नन्तु॑ । विश्वा॑ । भू॒तानि॑ । पव॑मान: । पु॒ना॒तु॒ । मा॒ ॥१९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनवो धिया। पुनन्तु विश्वा भूतानि पवमानः पुनातु मा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनन्तु । मा । देवऽजना: । पुनन्तु । मनव: । धिया । पुनन्तु । विश्वा । भूतानि । पवमान: । पुनातु । मा ॥१९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. जीवन-यात्रा के प्रारम्भ में (देवजना: 'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव') = इन वाक्यों के अनुसार उत्तम माता-पिता व आचार्य (मा पुनन्तु) = मुझे पवित्र करनेवाले हों। माता मेरे चरित्र को उत्तम बनाये। पिता मुझे शिष्टाचार-सम्पन्न करे तथा आचार्य मुझे ज्ञान से परिपूर्ण करे। अब जीवन-यात्रा की दूसरी मंजिल में दूसरे प्रयाण [गृहस्थ] में समय-समय पर आनेवाले (मनवः) = विचारशील अतिथि [अतिथिदेवो भव] (धिया) = उत्तम बुद्धि व कर्मों से पुनन्तु-पवित्र करें। इनकी प्रेरणा मुझे सत्पथ पर चलानेवाली हो। २. फिर वानप्रस्थ बनने पर (विश्वा भूतानि) = सब प्राणी (पुनन्तु) = मुझे पवित्र करें। वानप्रस्थ की तपोमयी साधना में मैं सब प्राणियों से किसी-न-किसी उत्तम गुण को सीखने का प्रयत्न करूँ। अन्त में संन्यासावस्था में (पवमानः) = सबको पवित्र करनेवाला वह प्रभु (मा पुनातु) = मुझे पवित्र करे-प्रभु स्मरण मेरी सब मलिनताओं के विनाश का कारण बने। 'माता, पिता, आचार्य, अतिथि व प्रभु' इनका मैं पूजन करूँ। ये मुझे पवित्र बनाएँ। यह 'पञ्चायतनपूजा' मेरे पाँचों भूतों को, पाँचों कर्मेन्द्रियों को, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को, पाँचों प्राणों को व मन, बुद्धि, चित, अहंकार व हृदय को पवित्र करे।

    भावार्थ -

    'माता, पिता, आचार्य, अतिथि व प्रभु' का सान्निध्य मेरे जीवन को पवित्र बनानेवाला हो।

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