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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगु देवता - यमः, निर्ऋतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त

    शि॒वः क॒पोत॑ इषि॒तो नो॑ अस्त्वना॒गा दे॒वाः श॑कु॒नो गृ॒हं नः॑। अ॒ग्निर्हि विप्रो॑ जु॒षतां॑ ह॒विर्नः॒ परि॑ हे॒तिः प॒क्षिणी॑ नो वृणक्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒व: । क॒पोत॑: । इ॒षि॒त: । न॒: । अ॒स्तु॒ । अ॒ना॒गा: । दे॒वा॒: । श॒कु॒न: । गृ॒हम् । न॒: । अ॒ग्नि: । हि। विप्र॑: । जु॒षता॑म् । ह॒वि: । न॒: । परि॑ । हे॒ति: । प॒क्षिणी॑ । न॒: । वृ॒ण॒क्तु॒ ॥२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवः कपोत इषितो नो अस्त्वनागा देवाः शकुनो गृहं नः। अग्निर्हि विप्रो जुषतां हविर्नः परि हेतिः पक्षिणी नो वृणक्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिव: । कपोत: । इषित: । न: । अस्तु । अनागा: । देवा: । शकुन: । गृहम् । न: । अग्नि: । हि। विप्र: । जुषताम् । हवि: । न: । परि । हेति: । पक्षिणी । न: । वृणक्तु ॥२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 27; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे (देवा:) = ज्ञानियो! यह (इषित:) = प्रेरणा प्रास करानेवाला (क-पोत:) = आनन्द का पोत प्रभु (न:) = हमारे लिए (शिवः) = कल्याण करानेवाला (अनागा:) = हमें निष्पाप बनानेवाला (अस्तु) = हो। (न:) = हमारे (गृहम्) = घर को (शकुन:) = यह शक्ति-सम्पन्न करे। प्रभु का उपासन करते हुए हमारे घर के सब व्यक्ति शक्ति-सम्पन्न हों। २. वह (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (हि) = निश्चय से (विप्रः) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाला है, वह (नः) = हमारी (हविः जुषताम्) = हवि का प्रीतिपूर्वक सेवन करे। हम यज्ञशील हों और प्रभु हमारे यज्ञों को स्वीकार करें। यज्ञशील होने पर (पक्षिणी) = [पक्ष परिग्रहे] परिग्रह-सम्बन्धी (हेतिः) = लोभरूप वज्र (न:) = हमें (परिवृणक्तु) = छोड़नेवाला हो। हमपर लोभरूप वन का प्रहार न हो।

    भावार्थ -

    हम प्रभु-स्मरण करें, प्रभु हमारा कल्याण करते हैं। हमें शक्तिशाली व निष्पाप बनाते हैं। यह प्रभु-स्मरण ही हमें यज्ञशील बनाकर लोभ-वज्र के प्रहार से बचाता है।

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