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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
ऋ॒चा क॒पोतं॑ नुदत प्र॒णोद॒मिषं॒ मद॑न्तः॒ परि॒ गां न॑यामः। सं॑लो॒भय॑न्तो दुरि॒ता प॒दानि॑ हि॒त्वा न॒ ऊर्जं॒ प्र प॑दा॒त्पथि॑ष्ठः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒चा । क॒पोत॑म् । नु॒द॒त॒ । प्र॒ऽनोद॑म् । इष॑म्। मद॑न्त: । परि॑ । गाम् । न॒या॒म॒: । स॒म्ऽलो॒भय॑न्त: । दु॒:ऽइ॒ता । प॒दानि॑ । हि॒त्वा । न॒: । उर्ज॑म् । प्र । प॒दा॒त् ॥२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयामः। संलोभयन्तो दुरिता पदानि हित्वा न ऊर्जं प्र पदात्पथिष्ठः ॥
स्वर रहित पद पाठऋचा । कपोतम् । नुदत । प्रऽनोदम् । इषम्। मदन्त: । परि । गाम् । नयाम: । सम्ऽलोभयन्त: । दु:ऽइता । पदानि । हित्वा । न: । उर्जम् । प्र । पदात् ॥२८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
विषय - कपोतम्, प्रणोदम्
पदार्थ -
१. (ऋचा) = स्तुति के द्वारा (प्रणोदम्) = प्रकृष्ट प्रेरणा प्राप्त करानेवाले (क-पोतम्) = आनन्द-पोत के समान प्रभु को नुदत-अपने हृदय में प्रेरित करो। प्रभु के सम्पर्क में मदन्त:-आनन्द का अनुभव करते हुए इषम् प्रभु-प्रेरणा को तथा गाम्-इस वेदवाणी को परिनयामः-अपने साथ परिणत करते हैं। प्रभु-प्रेरणा व प्रभुवाणी को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होते हैं। २. इसप्रकार हम दुरिता पदानि-अशुभ गतियों को संलोभयन्त:-विनष्ट करनेवाले होते हैं। न: हमारे लिए ऊर्जम्-बल व प्राणशक्ति को हित्वा-धारण करके पथिष्ठः प्रपदात्-मार्ग पर चलानेवालों में सर्वश्रेष्ठ प्रभु हमारे आगे चले। प्रभु हमारे नेता हों। उस अग्नि के नेतृत्व में हम भी अग्नि बन पाएँ।
भावार्थ -
वे प्रभु आनन्द के पोत हैं। हमें प्रेरणा देनेवाले हैं। हम प्रभु-प्रेरणा व प्रभु वाणी को प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों। अशुभ गतियों को छोड़कर बल व प्राण को धारण करके प्रभु के अनुयायी बनें। प्रभु ही हमारे नेता हों।
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