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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
परी॒मे॒ग्निम॑र्षत॒ परी॒मे गाम॑नेषत। दे॒वेष्व॑क्रत॒ श्रवः॒ क इ॒माँ आ द॑धर्षति ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । इ॒मे । अ॒ग्निम् । अ॒र्ष॒त॒ । परि॑ । इ॒मे । गाम् । अ॒ने॒ष॒त॒ । दे॒वेषु॑ । अ॒क्र॒त॒ । श्रव॑: । क: । इ॒मान् । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ ॥२८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
परीमेग्निमर्षत परीमे गामनेषत। देवेष्वक्रत श्रवः क इमाँ आ दधर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । इमे । अग्निम् । अर्षत । परि । इमे । गाम् । अनेषत । देवेषु । अक्रत । श्रव: । क: । इमान् । आ । दधर्षति ॥२८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
विषय - गो परिणय
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु का अनुसरण करनेवाले (इमे) = ये व्यक्ति (अग्निं परि अर्षत) = प्रभु की ओर गतिवाले होते हैं। (इमे) = ये (गाम्) = वेदवाणी को परि अनेषत परिणीत करते हैं। वेदवाणी को अपनानेवाले होते हैं। २. इसप्रकार ये (देवेषु) = दिव्य गुणों में (श्रवः) = यश को (अक्रत) = करनेवाले होते हैं, दिव्य गुणों को धारण करके यशस्वी बनते हैं। (क:) = अब कौन (इमान्) = इन्हें (आ दधर्षति) = धर्षित कर सकता है? 'काम-क्रोध, लोभ आदि कोई भी शत्रु इन्हें आक्रान्त करनेवाला नहीं होता।
भावार्थ -
हम प्रभु की ओर चलें, वेदवाणी को परिणीत करें, दिव्य गुणों से यशस्वी बनें और काम आदि से अजय्य हों।