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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    सूक्त - उपरिबभ्रव देवता - गौः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - गौ सूक्त

    आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒यम् । गौ: । पृश्नि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । अस॑दत् । मा॒तर॑म् । पु॒र: । पि॒तर॑म् । च॒ । प्र॒ऽयन् । स्व᳡: ॥३१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अयम् । गौ: । पृश्नि: । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुर: । पितरम् । च । प्रऽयन् । स्व: ॥३१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (अयम्) = यह-गतसूक्त के अनुसार यवादि सात्त्विक अन्नों का सेवन करनेवाला व्यक्ति (गौः) = [गच्छति] क्रियाशील होता है, (पृश्नि:) = [संस्प्रष्टा भासाम्-नि० २.१४] ज्ञान-ज्योति का स्पर्श करनेवाला होता है। यह (आ अक्रमीत) = समन्तात् अपने कर्त्तव्यकर्मों में गतिवाला होता है। यह (मातरम्) = वेदमाता को (पुरः) = सदा अपने सामने स्थापित करके उसकी प्रेरणा के अनुसार (असदत्) = गतिवाला होता है। आगमदीप-दृष्ट मार्ग से ही गति करता है। २. इसप्रकार शास्त्र प्रमाणक बनकर-शास्त्र विधान के अनुसार कार्यों को करता हुआ यह (स्वः पितरम्) = उस प्रकाशमय पिता प्रभु की ओर (प्रयन्) = जानेवाला होता है।

    भावार्थ -

    हम गतिशील बनें, ज्ञानी बनें। वेद के अनुसार कर्म करते हुए प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ें।

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