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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
सूक्त - उपरिबभ्रव
देवता - शमी
छन्दः - चतुष्पदा शङ्कुमत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - पापशमन सूक्त
बृह॑त्पलाशे॒ सुभ॑गे॒ वर्ष॑वृद्ध॒ ऋता॑वरि। मा॒तेव॑ पु॒त्रेभ्यो॑ मृड॒ केशे॑भ्यः शमि ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑त्ऽपलाशे । सुऽभ॑गे । वर्ष॑ऽवृध्दे । ऋत॑ऽवरि । मा॒ताऽइ॑व । पु॒त्रेभ्य॑: । मृ॒ड॒ । केशे॑भ्य: । श॒मि॒ ॥३०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहत्पलाशे सुभगे वर्षवृद्ध ऋतावरि। मातेव पुत्रेभ्यो मृड केशेभ्यः शमि ॥
स्वर रहित पद पाठबृहत्ऽपलाशे । सुऽभगे । वर्षऽवृध्दे । ऋतऽवरि । माताऽइव । पुत्रेभ्य: । मृड । केशेभ्य: । शमि ॥३०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
विषय - 'केशवर्धनकारी' शमीरस
पदार्थ -
१. हे शमि-शमीवृक्ष! तू (केशेभ्यः) = बालों के लिए उसी प्रकार मृड-सुख करनेवाली हो, इव-जैसे माता पुत्रेभ्यः-माता पुत्रों को सुखी करती है। माता पुत्रों की वृद्धि का कारण बनती है, तू बालों को बढ़ानेवाली हो। २. तू (बृहत् पलाशे) = बढ़े हुए पत्तोंवाली है, (सुभगे) = उत्तम ऐश्वर्यशाली-शरीर को सुन्दर बनानेवाली (वर्षवृद्धे) = वृष्टिजल से वृद्धि को प्राप्त हुई-हुई व (ऋतावरि)= -जलवाली है-रसवाली है।
भावार्थ -
शमीवृक्ष का रस बालों का इसप्रकार वर्धन करता है, जैसे माता पुत्रों का वर्धन करती है।
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