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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
यस्ते॒ मदो॑ऽवके॒शो वि॑के॒शो येना॑भि॒हस्यं॒ पुरु॑षं कृ॒णोषि॑। आ॒रात्त्वद॒न्या वना॑नि वृक्षि॒ त्वं श॑मि श॒तव॑ल्शा॒ वि रो॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठय:। ते॒ । मद॑: । अ॒व॒ऽके॒श: । वि॒ऽके॒श: । येन॑ । अ॒भि॒ऽहस्य॑म् । पुरु॑षम् । कृ॒णोषि॑ । आ॒रात् । त्वत् । अ॒न्या । वना॑नि । वृ॒क्षि॒ । त्वम् । श॒मि॒ । श॒तऽव॑ल्शा । वि । रो॒ह॒ ॥३०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते मदोऽवकेशो विकेशो येनाभिहस्यं पुरुषं कृणोषि। आरात्त्वदन्या वनानि वृक्षि त्वं शमि शतवल्शा वि रोह ॥
स्वर रहित पद पाठय:। ते । मद: । अवऽकेश: । विऽकेश: । येन । अभिऽहस्यम् । पुरुषम् । कृणोषि । आरात् । त्वत् । अन्या । वनानि । वृक्षि । त्वम् । शमि । शतऽवल्शा । वि । रोह ॥३०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
विषय - शमी
पदार्थ -
१. हे (शामि) = शमीवृक्ष! (यः) = जो (ते) = तेरा (मदः) = आनन्ददायक रस है, वह अवकेश:-बालों को बढ़ानेवाला है, प्रयोक्ता को लम्बे लटकते हुए बालोंवाला बनाता है, विकेश:-यह उसे विशिष्ट केशोंवाला बनाता है। येन-क्योंकि तू अपने रस से पुरुषम्-पुरुष को अभिहस्यम्-शरीर व बुद्धि. दोनों दृष्टिकोणों से [अभि] विकासवाला [हस] कृणोषि-करता है, अत: त्वत् अन्य:-तुझसे भिन्न वनानि-वृक्षों को आरात् वृक्षि-दूर-दूर तक काट डालता हूँ। २. हे शमि! त्वम्-तू अब शतवल्शा विरोह-सैकड़ों शाखाओंवाली होती हुई विशिष्टरूप से प्रादुर्भूत हो।
भावार्थ -
शमीवृक्ष का रस मानव शक्तियों के विकास के लिए उपयोगी है, अत: शमीवृक्ष के आसपास के अन्य वृक्षों को काटकर इसके विकास के लिए यत्नशील होना चाहिए।
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