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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
ऋ॒तावा॑नं वैश्वान॒रमृ॒तस्य॒ ज्योति॑ष॒स्पति॑म्। अज॑स्रं घ॒र्ममी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तऽवा॑नम् । वै॒श्वा॒न॒रम्। ऋ॒तस्य॑ । ज्योति॑ष: । पति॑म् । अज॑स्रम्। घ॒र्मम् । ई॒म॒हे॒ ॥३६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतावानं वैश्वानरमृतस्य ज्योतिषस्पतिम्। अजस्रं घर्ममीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठऋतऽवानम् । वैश्वानरम्। ऋतस्य । ज्योतिष: । पतिम् । अजस्रम्। घर्मम् । ईमहे ॥३६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
विषय - अजस्त्र घर्मम्
पदार्थ -
१. (ऋतावानम्) = प्रशस्त यज्ञोंवाले [ऋत-यज्ञ], (वैश्वानरम्) = सब मनुष्यों के हितकारी, (ऋतस्य) = [Right] नियमितता के व (ज्योतिष:) = ज्ञानज्योति के (पतिम) = रक्षक प्रभु से (अजस्त्र घर्मम्) = हमें न छोड़ जानेवाले-सदा हमारे साथ रहनेवाले तेज को (ईमहे) = माँगते हैं। वस्तुत: इस 'अजस्त्र धर्म' की प्राप्ति का उपाय यही है कि हम भी 'यज्ञशील, सब मनुष्यों के हित में प्रवृत्त तथा भौतिक क्रियाओं में सूर्य-चन्द्र की भाँति नियमिततावाले तथा ज्ञान की रुचिवाले' बनें। ऐसा बनने पर ही शरीर में शक्ति का रक्षण होता है और हमें 'अजस्त्र धर्म' की प्राप्ति होती है।
भावार्थ -
हम उस प्रभु का स्मरण करें जो यज्ञरूप हैं, सबका हित करनेवाले हैं, लोक लोकान्तरों को नियमितता से ले-चल रहे हैं, ज्ञान के पति हैं। इसप्रकार प्रभु-स्मरण करते हुए हम 'अक्षीण शक्ति' को प्राप्त करें।
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