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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
अ॒ग्निः परे॑षु॒ धाम॑सु॒ कामो॑ भू॒तस्य॒ भव्य॑स्य। स॒म्राडेको॒ वि रा॑जति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । परे॑षु । धाम॑ऽसु । काम॑: ।भूतस्य॑ । भव्य॑स्य । स॒म्ऽराट् । एक॑: । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥३६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निः परेषु धामसु कामो भूतस्य भव्यस्य। सम्राडेको वि राजति ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । परेषु । धामऽसु । काम: ।भूतस्य । भव्यस्य । सम्ऽराट् । एक: । वि । राजति ॥३६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 3
विषय - एक: सम्राट
पदार्थ -
१. (अग्नि:) = वे अग्रणी प्रभु ही (परेषु धामसु) = उत्कृष्ट तेजों में स्थित हैं अथवा दुर-से-दूर स्थानों में व्याप्त हैं। वे ही (भूतस्य) = उत्पन्न जगतों के और (भव्यस्य) = उत्पस्यमान [उत्पन्न होनेवाले] लोगों के (काम:) = कामयिता हैं-'काम संकल्प' द्वारा जन्म देनेवाले हैं। २. वे (सम्राट्) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के शासक हैं, (एक:) = अद्वितीय हैं और (विराजति) = विशेषण दीप्यमान हैं।
भावार्थ -
वे प्रभु दर-से-दूर स्थानों में भी व्याप्त हैं। उत्पन्न और उत्पत्स्यमान जगतों को काम-संकल्प द्वारा जन्म देनेवाले हैं। वे अद्वितीय सम्राट हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का शासन कर रहे|
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