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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
उप॒ प्रागा॑त्सहस्रा॒क्षो यु॒क्त्वा श॒पथो॒ रथ॑म्। श॒प्तार॑मन्वि॒च्छन्मम॒ वृक॑ इ॒वावि॑मतो गृ॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । प्र । अ॒गा॒त् । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्ष: । यु॒क्त्वा । श॒पथ॑: । रथ॑म् । श॒प्तार॑म् । अ॒नु॒ऽइ॒च्छन् । मम॑ । वृक॑:ऽइव । अवि॑ऽमत: । गृ॒हम् ॥३७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रागात्सहस्राक्षो युक्त्वा शपथो रथम्। शप्तारमन्विच्छन्मम वृक इवाविमतो गृहम् ॥
स्वर रहित पद पाठउप । प्र । अगात् । सहस्रऽअक्ष: । युक्त्वा । शपथ: । रथम् । शप्तारम् । अनुऽइच्छन् । मम । वृक:ऽइव । अविऽमत: । गृहम् ॥३७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
विषय - सहस्त्राक्षः शपथ:
पदार्थ -
१. जिस समय अपशब्द कहनेवाला पुरुष किसी के लिए अपशब्द का प्रयोग करता है तब वह उसके सहनों दोषों को देखनेवाला बनता है-मानो सहस्रों आँखों से उसके दोषों को ढंढने के लिए यत्नशील होता है, अत: आक्रोश को 'सहस्राक्ष' कहा गया है। यह (सहस्त्राक्ष: शपथ:) = सहनों आँखोंबाला आक्रोश [अपशब्द] (रथं युक्त्वा) = अपने रथ को जोतकर (उपप्रागात्) = शाप देनेवाले के समीप ही पहुँचता है। जैसे एक योद्धा रथ-स्थित होकर शत्रु पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार यह शपथ रथ-स्थित होकर शाप देनेवाले की ओर जाता है। २. यह शपथ (मम) = मुझे (शतारम्) = शाप देनेवाले को (अन्विच्छन्) = ढूँढता हुआ उस शप्ता के घर में ऐसे ही पहुँचे, इव जैसेकि (वृक:) = भेड़िया भेड़ को ढूँढता हुआ (अविमतः गृहम्) = भेड़वाले के घर में पहुँचता है।
भावार्थ -
जैसे भेड़िया भेड़ को समाप्त कर देता है, उसीप्रकार शाप शाप देनेवाले को ही समाप्त करनेवाला हो।
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