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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
यो नः॒ शपा॒दश॑पतः॒ शप॑तो॒ यश्च॑ नः॒ शपा॑त्। शुने॒ पेष्ट्र॑मि॒वाव॑क्षामं॒ तं प्रत्य॑स्यामि मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । शपा॑त् । अश॑पत: । शप॑त: ।य: । च॒ । न॒: । शपा॑त् । शुने॑ । पेष्ट्र॑म्ऽइव । अव॑ऽक्षामम् । तम् । प्रति॑ । अ॒स्या॒मि॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥३७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नः शपादशपतः शपतो यश्च नः शपात्। शुने पेष्ट्रमिवावक्षामं तं प्रत्यस्यामि मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । शपात् । अशपत: । शपत: ।य: । च । न: । शपात् । शुने । पेष्ट्रम्ऽइव । अवऽक्षामम् । तम् । प्रति । अस्यामि । मृत्यवे ॥३७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
विषय - शुने पेष्ट्रम् इव अवक्षामम्
पदार्थ -
१. समाज में कोई ऐसा व्यक्ति उपस्थित हो जाता है जो समाज के लिए हानिकर होता है। कई बार विवशता में समाज उसके लिए निन्दा का प्रस्ताव उपस्थित करता है। उस समय के लिए कहते हैं कि (यः) = जो (अशपत:) = किसी प्रकार के शाप का प्रयोग न करते हुए (न: शपात्) = हमें शाप देता है (च) = अथवा (य:) = जो (शपत:) = विवशता में निन्दा का प्रस्ताव करनेवाले (न:) = हमें (शपात्) = बुरा-भला कहता है, तो (शुने) = कुत्ते के लिए (अवक्षामम्) = सूखे (पेष्ट्रम्) = [piece] टुकड़ों की (इव) = भाँति (तम्) = उसे (मृत्यवे प्रत्यस्यामि) = मृत्यु के लिए फेंकता हैं, अर्थात् यह गाली देनेवाला व्यक्ति सारे समाज से दूषित किये जाने पर क्षीण होकर मृत्यु का शिकार हो जाता है।
भावार्थ -
जो सारे समाज के लिए विद्वेष का कारण बनता है, यह समाज से निन्दित किया जाकर उदासीनता के कारण क्षीण होकर मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
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