Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - सरस्वती
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
अ॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॑ प्रा॒णाय॒ भूरि॑धायसे। सर॑स्वत्या उरु॒व्यचे॑ वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पा॒नाय॑ । वि॒ऽआ॒नाय॑ । प्रा॒णाय॑ । भूरि॑ऽधायसे । सर॑स्वत्यै । उ॒रु॒ऽव्यचे॑ । वि॒धेम॑ । ह॒विषा॑ । व॒यम् ॥४१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपानाय व्यानाय प्राणाय भूरिधायसे। सरस्वत्या उरुव्यचे विधेम हविषा वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपानाय । विऽआनाय । प्राणाय । भूरिऽधायसे । सरस्वत्यै । उरुऽव्यचे । विधेम । हविषा । वयम् ॥४१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
विषय - सरस्वत्या-उरुव्यचे
पदार्थ -
१. (अपानाय) = मुख-नासिका से बहिर् विनिर्गत वायु का फिर अन्त:प्रवेश अपानन व्यापार कहलाता है, इस अपान के लिए, (व्यानाय) = ऊर्ध्व व अधोवृत्ति के त्याग से उस वायु का शरीर में ठहरना 'व्यान' कहलाता है, उस व्यान के लिए तथा शरीरस्थ वायु का मुख-नासिका से बहिर् निर्गमन प्राण कहलाता है, उस (भूरिधायसे) = बहुत प्रकार से-खूब ही धारण करनेवाले (प्राणाय) = प्राण के लिए (वयम्) = हम (हविषा) = दानपूर्वक अदन के द्वारा (विधेम) = प्रभु का पूजन करते हैं। (सरस्वत्यै) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता के लिए तथा (उरुव्यचे) = हृदय की खूब व्यापकता के लिए भी हम हवि के द्वारा प्रभुपूजन करते हैं।
भावार्थ -
यज्ञशेष के सेवन तथा प्रभुपूजन से हमारे 'प्राण, अपान, व्यान' ठीक कार्य करेंगे, हमारा ज्ञान बढ़ेगा और हृदय विशाल होगा।
इस भाष्य को एडिट करें