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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - सामंनस्यम्, वरुणः, सोमः, अग्निः, बृहस्पतिः, वसुगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
यो वः॒ शुष्मो॒ हृद॑येष्व॒न्तराकू॑ति॒र्या वो॒ मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टा। तान्त्सी॑वयामि ह॒विषा॑ घृ॒तेन॒ मयि॑ सजाता र॒मति॑र्वो अस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठय: । व॒: । शुष्म॑: । हृद॑येषु । अ॒न्त: । आऽकू॑ति: । या । व॒: । मन॑सि । प्रऽवि॑ष्टा । तान् । सी॒व॒या॒मि॒ । ह॒विषा॑ । घृ॒तेन॑ । मयि॑ । स॒ऽजा॒ता॒: । र॒मति॑: । व॒: । अ॒स्तु॒ ॥७३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वः शुष्मो हृदयेष्वन्तराकूतिर्या वो मनसि प्रविष्टा। तान्त्सीवयामि हविषा घृतेन मयि सजाता रमतिर्वो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठय: । व: । शुष्म: । हृदयेषु । अन्त: । आऽकूति: । या । व: । मनसि । प्रऽविष्टा । तान् । सीवयामि । हविषा । घृतेन । मयि । सऽजाता: । रमति: । व: । अस्तु ॥७३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
विषय - शुष्म, आकूति, हवि व घृत
पदार्थ -
१. (यः) = जो (व:) = तुम्हारे (हृदयेषु) = हदयों में (शुष्म:) = शत्रु-शोषक बल है, तथा (व:) = तुम्हारे (अन्त: मनसि) = हृदय-मध्यवर्ती मन में (या आकूतिः प्रविष्टा) = जो संकल्प प्रविष्ट है, (तान्) = उन संकल्पों व बलों को (हविषा) = त्याग की वृत्ति तथा (घृतेन) = ज्ञान-दीप्ति से (सीव्यामि) = सम्बद्ध कर देता हूँ। २. हे (सजाता:) = समान जन्मवाले व समानरूप से विकासवाले विद्यार्थियो! (मयि) = मुझमें (व:) = तुम्हारी (रमति:) = रमण अनुकूल वृत्ति हो। ('वसोष्यते निरमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम्') - [अथर्व० १.१.२] में विद्यार्थी की प्रार्थना थी कि हे वसुओं के पति आचार्य! आप मुझे रमणवाला कीजिए-आनन्दमय प्रकार से पढ़ाइए, जिससे मेरा पढ़ा हुआ मुझमें ही स्थित हो। यहाँ आचार्य भी कहते हैं कि तुम मुझमें रमण करनेवाले होओ। मैं तुम्हें त्यागशील व ज्ञान दीप्त बनाता हूँ।
भावार्थ -
आचार्य को विद्यार्थी के बल व संकल्प को त्यागवृत्ति व ज्ञान-दीप्ति से सम्बद्ध करना है। विद्यार्थियों के मन में त्यागवृत्ति हो और मस्तिष्क में ज्ञान।
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