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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 73

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - सामंनस्यम्, वरुणः, सोमः, अग्निः, बृहस्पतिः, वसुगणः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त

    एह या॑तु॒ वरु॑णः॒ सोमो॑ अ॒ग्निर्बृह॒स्पति॒र्वसु॑भि॒रेह या॑तु। अ॒स्य श्रिय॑मुप॒संया॑त॒ सर्व॑ उ॒ग्रस्य॑ चे॒त्तुः संम॑नसः सजाताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒ह । या॒तु॒ । वरु॑ण: । सोम॑: । अ॒ग्नि: । बृह॒स्पति॑: । असु॑ऽभि: । आ । इ॒ह । या॒तु॒ । अ॒स्य । श्रिय॑म् । उ॒प॒ऽसंया॑त । सर्वे॑ । उ॒ग्रस्य॑ । चे॒त्तु: । सम्ऽम॑नस: । स॒ऽजा॒ता॒: ॥७३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एह यातु वरुणः सोमो अग्निर्बृहस्पतिर्वसुभिरेह यातु। अस्य श्रियमुपसंयात सर्व उग्रस्य चेत्तुः संमनसः सजाताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इह । यातु । वरुण: । सोम: । अग्नि: । बृहस्पति: । असुऽभि: । आ । इह । यातु । अस्य । श्रियम् । उपऽसंयात । सर्वे । उग्रस्य । चेत्तु: । सम्ऽमनस: । सऽजाता: ॥७३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 73; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (इह) = इस देश में (वरुण:) = द्वेषादि का निवारण करनेवाला (सोमः) = सौम्य स्वभाव निरभिमान, (अग्नि:) = आगे-और-आगे बढ़नेवाला, अग्निवत् तेजस्वी [पावकवर्ण] पुरुष (आयातु) = आये,हमें ऐसे पुरुष का सम्पर्क प्राप्त हो। (बृहस्पति:) = महान् ज्ञानी पुरुष सब साधनों के साथ हमें प्राप्त हो। आचार्य शिष्यों से कहते हैं कि हे (सजाता:) = समान जन्मबाले बन्धुओ! तुम (सर्वे) = सब (संमनसः) = समान मनवाले होते हुए अस्य उग्रस्य चेत्तु:-इस तेजस्वी ज्ञानी को श्रियम्-श्री को उपसंयात-प्रास होओ, इसके सम्पर्क में, इससे ज्ञान प्राप्त करते हुए, उस जैसा ही बनने का प्रयत्न करो।

    भावार्थ -

    हमें 'वरुण, सोम, अग्नि तथा बृहस्पति' का सम्पर्क प्राप्त हो। ये हमें सब वसुओं को प्राप्त करानेवाला हों। हम सब भी समान मनवाले होते हुए इस ज्ञानी की श्री को प्राप्त करें। हम भी मन में 'निद्वेष व निरभिमान' बनें। शरीर में अग्नि के समान तेजस्वी तथा मस्तिष्क में बृहस्पति हों।

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