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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 75

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
    सूक्त - कबन्ध देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सपत्नक्षयण सूक्त

    प॑र॒मां तं प॑रा॒वत॒मिन्द्रो॑ नुदतु वृत्र॒हा। यतो॒ न पुन॒राय॑ति शश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र॒माम् । तम् । प॒रा॒ऽवत॑म् । इन्द्र॑: । नु॒द॒तु॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । यत॑: । न । पुन॑: । आ॒ऽअय॑ति । श॒श्व॒तीभ्य॑: । समा॑भ्य: ॥७५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परमां तं परावतमिन्द्रो नुदतु वृत्रहा। यतो न पुनरायति शश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परमाम् । तम् । पराऽवतम् । इन्द्र: । नुदतु । वृत्रऽहा । यत: । न । पुन: । आऽअयति । शश्वतीभ्य: । समाभ्य: ॥७५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (वृत्रहा) = राष्ट्र को घेरनेवाले शत्रुओं को नष्ट करनेवाला यह (इन्द्रः) = शत्रुविद्रावक राजा (तम्) = उस शत्रु को (परमां परावतम्) = अतिशयित दूर देश में (नुदतु) = धकेल दे कि (यतः) = जहाँ से वह (शश्वतीभ्यः समाभ्यः)   = अनेक वर्षों तक भी (पुनः न आयति) = फिर हमारे राष्ट्र पर चढ़ने के लिए न आ पाये।

    भावार्थ -

    शत्रु को इसप्रकार दूर देश में धकेला जाए कि वह फिर वर्षों तक हमारे राष्ट्र पर आक्रमण का स्वप्न भी न ले।

     

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