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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 79/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - संस्फानम्
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - ऊर्जा प्राप्ति सूक्त
अ॒यं नो॒ नभ॑स॒स्पतिः॑ सं॒स्फानो॑ अ॒भि र॑क्षतु। अस॑मातिं गृ॒हेषु॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । न॒: । नभ॑स: । पति॑: । स॒म्ऽस्फान॑: । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ । अस॑मातिम् । गृ॒हेषु॑ । न॒: ॥७९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं नो नभसस्पतिः संस्फानो अभि रक्षतु। असमातिं गृहेषु नः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । न: । नभस: । पति: । सम्ऽस्फान: । अभि । रक्षतु । असमातिम् । गृहेषु । न: ॥७९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 79; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञ व अन्नोत्पत्ति
पदार्थ -
१. (अयम्) = यह (न:) = हमारा हविर्धानों [पूजागृहों] में परिदृश्यमान यज्ञाग्नि हवि द्वारा (नभसः पति:) = धुलोक का पालन करनेवाला है-('अग्रौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । संस्फान:') = पर्जन्यों द्वारा वृष्टि कराके धान्यराशि का वर्धयिता यह अग्नि हमारा (अभिरक्षतु) = वर्धन करनेवाला हो। यह स्वास्थ्य भी दे और सौमनस्य भी प्राप्त कराए। २. यह (यज्ञाग्नि न:) = हमारे (गृहेषु) = घरों में (असमातिम्) = [माति: मानं तया सह समातिः, न समाति:] परिच्छेदरहित धान्य आदि को करे।
भावार्थ -
सभी घरों में यज्ञाग्नि प्रज्वलित हो। यह यज्ञाग्नि मेघों को जन्म देती हुई वृष्टि के द्वारा खूब ही अन्न प्राप्त कराए।