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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 79/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - संस्फानम्
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - ऊर्जा प्राप्ति सूक्त
त्वं नो॒ नभ॑सस्पत॒ ऊर्जं॑ गृ॒हेषु॑ धारय। आ पु॒ष्टमे॒त्वा वसु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । न॒: । न॒भ॒स॒: । प॒ते॒ । ऊर्ज॑म् । गृ॒हेषु॑ । धा॒र॒य॒ । आ । पु॒ष्टम् । ए॒तु॒ । आ । वसु॑ ॥७९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो नभसस्पत ऊर्जं गृहेषु धारय। आ पुष्टमेत्वा वसु ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । न: । नभस: । पते । ऊर्जम् । गृहेषु । धारय । आ । पुष्टम् । एतु । आ । वसु ॥७९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 79; मन्त्र » 2
विषय - ऊर्ज, पुष्टं, वसु
पदार्थ -
१. हे (नभसस्पते) = हवि द्वारा धुलोक का पालन करनेवाले यज्ञाग्ने! (त्वम्) = तु (न:) = हमारे (गृहेषु) = घरों में (ऊर्जम्) = बलकर, रसवत् अन्न को (धारय) = धारण कर । २. तेरे द्वारा हमें (पुष्टम्) = स्वस्थ, पुष्टियुक्त प्रजा, पशु (आ एतु) = सर्वथा प्राप्त हों तथा (वसु आ) = निवास के लिए आवश्यक उत्तम पदार्थ व धन प्राप्त हो।
भावार्थ -
यज्ञों से अन्न-रस, पुष्ट प्रजा, पशु व वसुओं की प्राप्ति होती है।
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