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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 80

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 80/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त

    अ॒प्सु ते॒ जन्म॑ दि॒वि ते॑ स॒धस्थं॑ समु॒द्रे अ॒न्तर्म॑हि॒मा ते॑ पृथि॒व्याम्। शुनो॑ दि॒व्यस्य॒ यन्मह॒स्तेना॑ ते ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्ऽसु । ते॒ । जन्म॑ । दि॒वि । ते॒ । स॒धऽस्थ॑म् । स॒मु॒द्रे । अ॒न्त: । म॒हि॒मा । ते॒ । पृ॒थि॒व्याम् । शुन॑: । दि॒व्यस्य॑ । यत् । मह॑: । तेन॑ । ते॒ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥८०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सु ते जन्म दिवि ते सधस्थं समुद्रे अन्तर्महिमा ते पृथिव्याम्। शुनो दिव्यस्य यन्महस्तेना ते हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्ऽसु । ते । जन्म । दिवि । ते । सधऽस्थम् । समुद्रे । अन्त: । महिमा । ते । पृथिव्याम् । शुन: । दिव्यस्य । यत् । मह: । तेन । ते । हविषा । विधेम ॥८०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 80; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! (अप्सु) = रेत:कणों में (ते जन्म) = तेरा प्रादुर्भाव है, अर्थात् रेत:कणों का रक्षण होने पर बुद्धि का दीपन होकर आपका दर्शन होता है। (दिवि ते सधस्थम्) = ज्ञान के प्रकाश में आपका सहस्थान है। ज्ञान का प्रकाश होने पर ज्ञानी प्रकाशमय हृदय में आपके साथ निवास करता है। यह ज्ञानी (समुद्रे पृथिव्याम् अन्त:) = समुद्र में व इस पृथिवी में (ते महिमा) = आपकी महिमा को देखता है। २. आप [दिव्य श्वा] प्रकाशमय, गतिमय व सदा से वर्धमान हैं। उन (दिव्यस्य शन:) = प्रकाशमय, वर्धमान आपका (यत् महः) = जो तेज हैं, (तेन) = उस तेज के हेतु से (ते) = आपका (हविषा विधेम) = हवि के द्वारा पूजन करें।

    भावार्थ -

    रेत:कणों का रक्षण हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाता है। प्रकाशमय हृदय में जानी आपके चरणों में बैठता है। यह समुद्र व पृथिवी में आपकी महिमा को देखता है। आपके तेज को प्राप्त करने के लिए हवि के द्वारा आपका पूजन करता है।

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