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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 81

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गर्भाधान सूक्त

    य॒न्तासि॒ यच्छ॑से॒ हस्ता॒वप॒ रक्षां॑सि सेधसि। प्र॒जां धनं॑ च गृह्णा॒नः प॑रिह॒स्तो अ॑भूद॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒न्ता । अ॒सि॒ । यच्छ॑से । हस्तौ॑ । अप॑ ।रक्षां॑सि । से॒ध॒सि॒ । प्र॒ऽजाम् । धन॑म् । च॒ । गृ॒ह्णा॒न: । प॒रि॒ऽह॒स्त: । अ॒भू॒त् । अ॒यम् ॥८१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्तासि यच्छसे हस्तावप रक्षांसि सेधसि। प्रजां धनं च गृह्णानः परिहस्तो अभूदयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यन्ता । असि । यच्छसे । हस्तौ । अप ।रक्षांसि । सेधसि । प्रऽजाम् । धनम् । च । गृह्णान: । परिऽहस्त: । अभूत् । अयम् ॥८१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 81; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. गतसूक्त के अनुसार प्रभुपूजन की वृत्तिवाले हे पुरुष ! तू (यन्ता असि) = अपने जीवन को नियम में रखनेवाला है। पाणिग्रहण के समय तू (हस्तौ यच्छसे) = अपने हाथों को अपने जीवन साथी के लिए देता है, (रक्षांसि अप सेधिति) = विनाशक तत्त्वों को घर से दूर करता है-अपने मन में भी राक्षसीभावों का उदय नहीं होने देता। २. वस्तुत: (प्रजाम्) = सन्तान को (गलान:) = समीप भविष्य में प्राप्त करनेवाला (अयम्) = यह पुरुष (धनं च) = धन को भी [गृहानः] ग्रहण करने के स्वभाववाला-धनार्जन की योग्यतावाला परिहस्तः अभूत-हाथ का सहारा देनेवाला हुआ है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश का मुख्योद्देश्य उत्तम सन्तान की प्राप्ति ही है और गृहस्थ को परिवार के पालन के लिए धन अवश्य कमाना है।

    भावार्थ -

    गृहस्थ में पति का जीवन बड़ा नियमित हो। उसका हृदय राक्षसीभावों से शून्य हो। प्रजा-प्राति की कामनावाला यह धर्नाजन की योग्यता से युक्त हो।

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