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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 81/ मन्त्र 3
यं प॑रिह॒स्तमबि॑भ॒रदि॑तिः पुत्रका॒म्या। त्वष्टा॒ तम॑स्या॒ आ ब॑ध्ना॒द्यथा॑ पु॒त्रं जना॑दिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । प॒रि॒ऽह॒स्तम् । अबि॑भ: । अदि॑ति: । पु॒त्र॒ऽका॒म्या । त्वष्टा॑ । तम् । अ॒स्यै॒ । आ । ब॒ध्ना॒त् । यथा॑ । पु॒त्रम् । जना॑त् । इति॑ ॥८१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यं परिहस्तमबिभरदितिः पुत्रकाम्या। त्वष्टा तमस्या आ बध्नाद्यथा पुत्रं जनादिति ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । परिऽहस्तम् । अबिभ: । अदिति: । पुत्रऽकाम्या । त्वष्टा । तम् । अस्यै । आ । बध्नात् । यथा । पुत्रम् । जनात् । इति ॥८१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 81; मन्त्र » 3
विषय - पुत्रकाम्या अदिति
पदार्थ -
१. (पुत्रकाम्या) = उत्तम सन्तान की कामनावाली (अदिति:) = अखण्डित व्रतवाली यह स्त्री (यम्) = जिस (परिहस्तम्) = हाथ का सहारा देनेवाले पुरुष को (अविभः) = धारण करती है, (त्वष्टा) = संसार का निर्माता प्रभु (तम्) = उस पुरुष को (अस्यै आबध्नात्) = इसके लिए बाँधे-इसके साथ उस पुरुष के सम्बन्ध को स्थिर करे, (यथा) = जिससे यह (पुत्रं जनात्) = उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाली हो। (इति) = यही तो इस सम्बन्ध का उद्देश्य है।
भावार्थ -
पत्नी को पुत्र की ही कामनावाला होना चाहिए। वह व्रतमय जीवनवाली होगी तो सन्तान भी उत्तम होगी। उसे पतिव्रता होना, जिससे सन्तान भी व्रतमय जीवनवाले हों।
विशेष -
धन कमाने की योग्यतावाला यह पुरुष गृहस्थ में प्रवेश करता है। घर को सौभाग्य-सम्पन्न बनानेवाला [गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तम्], यह पति 'भग' कहलाता है। अगले तीन सूक्तों का ऋषि यह भग ही है।