Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 82

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
    सूक्त - भग देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जायाकामना सूक्त

    आ॒गच्छ॑त॒ आग॑तस्य॒ नाम॑ गृह्णाम्याय॒तः। इन्द्र॑स्य वृत्र॒घ्नो व॑न्वे वास॒वस्य॑ श॒तक्र॑तोः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽगच्छ॑त: । आऽग॑तस्य । नाम॑ । गृ॒ह्णा॒मि॒ । आ॒ऽय॒त: । इन्द्र॑स्य । वृ॒त्र॒ऽघ्न: । व॒न्वे॒ । वा॒स॒वस्य॑ । श॒तऽक्र॑तो:॥८२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आगच्छत आगतस्य नाम गृह्णाम्यायतः। इन्द्रस्य वृत्रघ्नो वन्वे वासवस्य शतक्रतोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽगच्छत: । आऽगतस्य । नाम । गृह्णामि । आऽयत: । इन्द्रस्य । वृत्रऽघ्न: । वन्वे । वासवस्य । शतऽक्रतो:॥८२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 82; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (आयत:) = अतिशयेन यत्नवान् [यती प्रयले] अथवा सब इन्द्रियों का नियमन करनेवाला [यमु उपरमे] मैं (आगच्छतः) = समन्तात् गतिवाले व आगतस्य आये हुए-हदयस्थ प्रभु के नाम का (गृह्णामि) = उच्चारण करता हूँ। प्रत्येक गृहस्थ को प्रभु का स्मरण करना ही चाहिए। प्रभु के स्मरण से ही गृहस्थ के भार को उठाने की शक्ति प्राप्त होती है तथा जीवन की पवित्रता बनी रहती है। २. (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली (वृत्रनः) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले (वासवस्य) = सब वसुओं से सम्पन्न, (शतक्रतो:) = सैकड़ों, 'शक्तियों, प्रज्ञानों व कर्मों' वाले प्रभु से (वन्वे) = याचना करता हूँ, इस प्रभु से अभिमत पदार्थों की प्रार्थना करता हूँ। वस्तुत: गृहस्थ में प्रवेश करनेवाले युवक को भी 'इन्द्र, वृत्रहा, वासव व शतक्रतु' बनने का यत्न करना चाहिए। इन्द्र, अर्थात् वह जितेन्द्रिय बने, जितेन्द्रयता ही वर का सर्वमहान् ऐश्वर्य है। यह ज्ञान के द्वारा वासनाओं को विनष्ट करनेवाला हो, सब वसुओं का सम्पादन करे तथा यज्ञमय जीवनवाला हो।

    भावार्थ -

    गृहस्थ में प्रवेश करनेवाला युवक प्रभु का स्मरण करे। यह प्रभु स्मरण ही उसके जीवन को पवित्र व सशक्त बनता है। यह जितेन्द्रिय [इन्द्र] बने, ज्ञानी बनकर वासनाओं का विनाश करनेवाला हो [वृत्रहा], गृहस्थ के लिए आवश्यक वसुओं का सम्पादन करे [वासव] तथा यज्ञमय जीवनवाला [शतक्रतु] बने।

     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top