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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
येन॑ सू॒र्यां सा॑वि॒त्रीम॒श्विनो॒हतुः॑ प॒था। तेन॒ माम॑ब्रवी॒द्भगो॑ जा॒यामा व॑हता॒दिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । सू॒र्याम् । सा॒वि॒त्रीम् । अ॒श्विना॑ । ऊ॒हतु॑: । प॒था । तेन॑ । माम् । अ॒ब्र॒वी॒त् । भग॑: । जा॒याम् । आ । व॒ह॒ता॒त् । इति॑ ॥८२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येन सूर्यां सावित्रीमश्विनोहतुः पथा। तेन मामब्रवीद्भगो जायामा वहतादिति ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । सूर्याम् । सावित्रीम् । अश्विना । ऊहतु: । पथा । तेन । माम् । अब्रवीत् । भग: । जायाम् । आ । वहतात् । इति ॥८२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 82; मन्त्र » 2
विषय - अश्विना सूर्या
पदार्थ -
१. (येन पथा) = जिस मार्ग से (अश्विना) = अश्विनी देव-दिन और रात (सावित्री सूर्याम्) = सविता सम्बन्धी सूर्य को ज्योति को (ऊहतः) = धारण करते हैं, (तेन) = उसी मार्ग से तू (जायाम् आवहतात) = पत्नी को प्राप्त करनेवाला हो, (इति) = यह बात (माम्) = मुझे (भग:) = उस ऐश्वर्यवान् प्रभु ने (अब्रवीत्) = कही है। २. दिन और रात अत्यन्त नियमित गति में चलते हुए 'सूर्या' को प्राप्त करते हैं। एक वर भी उसी प्रकार नियमित गतिवाला होता हुआ तथा प्राणसाधना को अपनाता हुआ [अश्विना प्राणापानौ] पत्नी को प्रास करे।
भावार्थ -
पति को 'अश्विनौ' [दिन-रात] की भौति नियमित गतिवाला होना चाहिए । इसे प्राणसाधना की प्रवृत्तिवाला होना चाहिए [अश्विना-प्राणापानौ]। पत्नी को 'सूर्या' बनना, क्रियाशील [सरति] व प्रकाशमय जीवनवाला होना चाहिए।
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