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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 82/ मन्त्र 3
यस्ते॑ऽङ्कु॒शो व॑सु॒दानो॑ बृ॒हन्नि॑न्द्र हिर॒ण्ययः॑। तेना॑ जनीय॒ते जा॒यां मह्यं॑ धेहि शचीपते ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । अ॒ङ्कु॒श: । व॒सु॒ऽदान॑: । बृ॒हन् । इ॒न्द्र॒ । हि॒र॒ण्यय॑: । तेन॑ । ज॒नि॒ऽय॒ते । जा॒याम् । मह्य॑म् । धे॒हि॒ । श॒ची॒ऽप॒ते॒ ॥८२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्तेऽङ्कुशो वसुदानो बृहन्निन्द्र हिरण्ययः। तेना जनीयते जायां मह्यं धेहि शचीपते ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । अङ्कुश: । वसुऽदान: । बृहन् । इन्द्र । हिरण्यय: । तेन । जनिऽयते । जायाम् । मह्यम् । धेहि । शचीऽपते ॥८२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 82; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु का वरद अंकुश
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (यः ते अंकुश:) = जो आपका अंकुश-अंकुशवत् आकर्षक हाथ (वसुदानः) = सब वसुओं को देनेवाला है, (बृहन्) = वृद्धि का कारणभूत है, (हिरण्यय:) = ज्योतिर्मय है। प्रभु का हाथ अंकुशवत् है। यह हमें बुराइयों से रोकता है, सब बसुओं को प्रास कराता है और हमारा वर्धन करता हुआ हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाता है। २. हे (शचीपते) = सब वाणियों, शक्तियों व प्रज्ञानों के (स्वामिन्) = प्रभो! (तेन) = उसी अपने अंकुश से (जनीयते) = सन्तान को जन्म देनेवाली पत्नी की कामनावाले (मह्यम्) = मेरे लिए (जायाम्) = पत्नी को भी (धेहि) = प्राप्त कराइए।
भावार्थ -
प्रभु के पाप-निवारक वरद हस्तों से हमें सब वसु प्राप्त होते हैं। ये हाथ हमारा वर्धन करते हैं, हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाते हैं और ये हाथ ही हमें जीवन का साथी [जाया] प्राप्त कराते हैं।
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