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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 82/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भग देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जायाकामना सूक्त
    55

    यस्ते॑ऽङ्कु॒शो व॑सु॒दानो॑ बृ॒हन्नि॑न्द्र हिर॒ण्ययः॑। तेना॑ जनीय॒ते जा॒यां मह्यं॑ धेहि शचीपते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । अ॒ङ्कु॒श: । व॒सु॒ऽदान॑: । बृ॒हन् । इ॒न्द्र॒ । हि॒र॒ण्यय॑: । तेन॑ । ज॒नि॒ऽय॒ते । जा॒याम् । मह्य॑म् । धे॒हि॒ । श॒ची॒ऽप॒ते॒ ॥८२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तेऽङ्कुशो वसुदानो बृहन्निन्द्र हिरण्ययः। तेना जनीयते जायां मह्यं धेहि शचीपते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । अङ्कुश: । वसुऽदान: । बृहन् । इन्द्र । हिरण्यय: । तेन । जनिऽयते । जायाम् । मह्यम् । धेहि । शचीऽपते ॥८२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 82; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेशः।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! (यः) जो (ते) तेरा (अङ्कुशः) गणना व्यवहार [अथवा, अङ्कुश, दुष्कर्मों का दण्ड] (बृहन्) बहुत बड़ा और (हिरण्ययः) ज्योतिःस्वरूप और (वसुदानः) धन देनेवाला है। (तेन) उसी के द्वारा, (शचीपते) वाणी वा कर्म वा बुद्धि के रक्षक परमेश्वर ! (जनीयते) पत्नी की इच्छावाले (मह्यम्) मुझे (जायाम्) वीरों को उत्पन्न करनेवाली पत्नी (धेहि) दे ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के उत्तम-२ गुणों को अपने में धारण करके विद्यावान् और धनवान् होकर पति पत्नी को और पत्नी पति को अपने सदृश ग्रहण करें ॥३॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३−(यः) (ते) तव (अङ्कुशः) सानसिवर्णसि०। उ० ४।१०७। इति अङ्क संख्याकरणे, यद्वा, अकि लक्षणे−उशच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इत्यन्तोदात्तः। गणनाव्यवहारः। दुष्कर्मणां दण्डायास्त्रभेदः (वसुदानः) ददातेर्ल्युट्। धनदाता (बृहन्) महान् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (हिरण्ययः) ऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्व०। पा० ६।४।१७५। इति हिरण्यशब्दात् मयटि मलोपः। हिरण्यमयः। तेजोमयः (तेन) अङ्कुशेन जनीयते। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति जनि−क्यच्, शतृ। जनिर्जाया तामात्मन इच्छते पुरुषाय (जायाम्) वीरजननीम् (मह्यम्) (धेहि) देहि। प्रयच्छ (शचीपते) शच वाचि−इन्, ङीप्। शची वाङ्नाम−निघ० १।११। कर्मनाम−२।१। प्रज्ञानाम। ३।९। वाचां कर्मणां प्रज्ञानां वा रक्षक परमेश्वर ॥

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    विषय

    प्रभु का वरद अंकुश

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (यः ते अंकुश:) = जो आपका अंकुश-अंकुशवत् आकर्षक हाथ (वसुदानः) = सब वसुओं को देनेवाला है, (बृहन्) = वृद्धि का कारणभूत है, (हिरण्यय:) = ज्योतिर्मय है। प्रभु का हाथ अंकुशवत् है। यह हमें बुराइयों से रोकता है, सब बसुओं को प्रास कराता है और हमारा वर्धन करता हुआ हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाता है। २. हे (शचीपते) = सब वाणियों, शक्तियों व प्रज्ञानों के (स्वामिन्) = प्रभो! (तेन) = उसी अपने अंकुश से (जनीयते) = सन्तान को जन्म देनेवाली पत्नी की कामनावाले (मह्यम्) = मेरे लिए (जायाम्) = पत्नी को भी (धेहि) = प्राप्त कराइए।

    भावार्थ

    प्रभु के पाप-निवारक वरद हस्तों से हमें सब वसु प्राप्त होते हैं। ये हाथ हमारा वर्धन करते हैं, हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाते हैं और ये हाथ ही हमें जीवन का साथी [जाया] प्राप्त कराते हैं।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे सम्राट्! (यः) जो (ते) तेरा (वसु दान:) सम्पत्ति का विभाग कर, देने वाला, (हिरण्ययः) सुवर्णनिर्मित (बृहत् अङ्कुश) बड़ा राजदण्ड है, (तेन) उस द्वारा (मह्यम् जनीयते) मुझ पत्नी चाहने वाले के लिये (शचीपते) हे कर्मों और प्रज्ञा के पति सम्राट्! (जायाम्) पत्नी (धेहि) प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [अङ्कुश= हाथी को हांकने के लिये लोहनिर्मित दण्डा। ऐसे प्रजा के शासन के लिये राजा१ का दण्डा‌। इस राजदण्डे को sceptre कहते हैं। यह राजा का दण्डा है अतः वेदानुसार सुवर्णनिर्मित होना चाहिये, लोहनिर्मित नहीं। वसुदानः = (यजुर्वेद अ० ३०।मन्त्र ४) में वसुविभक्ता को 'विभक्तारं हवामहे द्वारा निर्दिष्ट किया है शची =कर्मनाम, प्रज्ञानाम (निघं० २।१; ३।९)। सूक्त में दर्शाया है कि वसुविभाग तथा विवाह, राजकीय नियमों द्वारा नियन्त्रित होने चाहिये]। [१. दण्डः शास्ति प्रजा: सर्वाः (मनु)]

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    विषय

    वर-वरण का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (यः) जो (ते) तेरा (अंकुशः) अंकुश, शासन (वसुदानः) बहुत धन वितरण करने वाला (हिरण्ययः) सुवर्णमय (बृहन्) बहुत बड़ा है हे (शचीपते) समस्त शक्तियों के स्वामिन् ! (तेन) उसी अंकुश या शासन से (जनीयते) पुत्रोत्पादन करने योग्य पत्नी की कामना करने वाले (मह्यम्) मुझे भी (जायाम् धेहि) जाया, स्त्री का प्रदान कर॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जायाकामो भग ऋषिः। इन्द्रो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Marriage Match

    Meaning

    Great and golden beautiful is your law and dispensation of matrimony, Indra, lord of might and glory, which brings showers of peace and plenty of wealth, honour and excellence. Under that law and discipline, O lord of love, kindness and grace, bless me with the wife I love and cherish.

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    Translation

    O resplendent Lord, with your great golden hook, which is bestower of wealth, may you bestow a wife on me, who seck a wife, O master of good action (Sacipati).

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    Translation

    O Almighty Divinity! Thou art the master of all powers, please let me, the desirer of wife, have a good wife through that Thy power of control and inspiration which is full of all splendor, which provides with prosperity and which is powerful.

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    Translation

    Great, o God, is that administration of Thine, bestowing treasure, excellent Iike gold therewith. O Lord of Might, bestow a wife on me who long to wed.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यः) (ते) तव (अङ्कुशः) सानसिवर्णसि०। उ० ४।१०७। इति अङ्क संख्याकरणे, यद्वा, अकि लक्षणे−उशच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इत्यन्तोदात्तः। गणनाव्यवहारः। दुष्कर्मणां दण्डायास्त्रभेदः (वसुदानः) ददातेर्ल्युट्। धनदाता (बृहन्) महान् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (हिरण्ययः) ऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्व०। पा० ६।४।१७५। इति हिरण्यशब्दात् मयटि मलोपः। हिरण्यमयः। तेजोमयः (तेन) अङ्कुशेन जनीयते। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति जनि−क्यच्, शतृ। जनिर्जाया तामात्मन इच्छते पुरुषाय (जायाम्) वीरजननीम् (मह्यम्) (धेहि) देहि। प्रयच्छ (शचीपते) शच वाचि−इन्, ङीप्। शची वाङ्नाम−निघ० १।११। कर्मनाम−२।१। प्रज्ञानाम। ३।९। वाचां कर्मणां प्रज्ञानां वा रक्षक परमेश्वर ॥

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