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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मानाशन सूक्त
इन्द्र॑स्य॒ वच॑सा व॒यं मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य च। दे॒वानां॒ सर्वे॑षां वा॒चा यक्ष्मं॑ ते वारयामहे ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । वच॑सा । व॒यम् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । च॒ । दे॒वाना॑म्। सर्वे॑षाम् । वा॒चा । यक्ष्म॑म् । ते॒ । वा॒र॒या॒म॒हे॒ ॥८५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य वचसा वयं मित्रस्य वरुणस्य च। देवानां सर्वेषां वाचा यक्ष्मं ते वारयामहे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । वचसा । वयम् । मित्रस्य । वरुणस्य । च । देवानाम्। सर्वेषाम् । वाचा । यक्ष्मम् । ते । वारयामहे ॥८५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 85; मन्त्र » 2
विषय - 'इन्द्र, मित्र, वरुण देव'
पदार्थ -
१. (इन्द्रस्य) = रोगरूप सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु के (वचसा) = वचन से वेदप्रतिपादित वाणी से (वयम्) = हम (ते यक्ष्मम्) = तेरे रोग को (वारयामहे) = निवारित करते हैं। वरणवृक्ष के समुचित प्रयोग से हम तेरे रोग को दूर करते हैं। २. (मित्रस्य) = उस प्रमीति [मृत्यु] से बचानेवाले प्रभु के (च) = तथा (वरुणस्य) = द्वेष आदि का निवारण करनेवाले प्रभु के वचन से हम तेरे रोग को दूर करते हैं। 'इन्द्र' में जितेन्द्रियता का भाव है, 'मित्र' में स्नेह तथा 'वरुण' में निषता का। ये तीनों ही वृत्तियों दोष-निवारण के लिए आवश्यक हैं। ३. (सर्वेषां देवानां वाचा) = सब देवों की वाणियों से हम तेरे रोगों को दूर करते हैं। विद्वान् वैद्यों के कथन से वरना का ठीक प्रयोग करते हुए हम नौरोग बनते हैं।
भावार्थ -
हम 'जितेन्द्रिय, स्नेहवाले व निष' बनकर रोगों को पराजित करते हैं। विद्वान् बैद्यों के कथन से वरना का ठीक प्रयोग करते हुए हम नीरोग बनते हैं।
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