Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 86

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - एकवृषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वृषकामना सूक्त

    वृषेन्द्र॑स्य॒ वृषा॑ दि॒वो वृषा॑ पृथि॒व्या अ॒यम्। वृषा॒ विश्व॑स्य भू॒तस्य॒ त्वमे॑कवृ॒षो भ॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । इन्द्र॑स्य । वृषा॑ । दि॒व: । वृषा॑ । पृ॒थि॒व्या: । अ॒यम् । वृषा॑ । विश्व॑स्य । भू॒तस्य॑ । त्वम् । ए॒क॒ऽवृ॒ष: । भ॒व॒ ॥८६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषेन्द्रस्य वृषा दिवो वृषा पृथिव्या अयम्। वृषा विश्वस्य भूतस्य त्वमेकवृषो भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । इन्द्रस्य । वृषा । दिव: । वृषा । पृथिव्या: । अयम् । वृषा । विश्वस्य । भूतस्य । त्वम् । एकऽवृष: । भव ॥८६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 86; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (अयम्) = यह प्रभु (इन्द्रस्य) = सूर्य का-सूर्य के अधिष्ठान धुलोक का (वृषा) = स्वामी है [वृषु ऐश्वर्य], (दिव:) = इस जगमगाते अन्तरिक्षलोक का (वृषा) = स्वामी है तथा (पृथ्व्यिा:) = पृथिवीलोक का स्वामी है। २. यह प्रभु (सर्वस्य भूतस्य वृषा) = सब प्राणियों का स्वामी है। हे उपासक | तू भी इस 'वृषा' प्रभु का उपासन करता हुआ (एकवृषः भव) = अद्वितीय शक्तिशाली बन । अपनी इन्द्रियों का स्वामी बनता हुआ 'एकवृष' बन।

    भावार्थ -

    प्रभु, 'धुलोक, अन्तरिक्षलोक व पृथ्विीलोक' के स्वामी हैं। वे सब भूतों के स्वामी हैं। इस वृषा का स्मरण करते हुए हम भी 'मस्तिष्क, हृदय व शरीर' के स्वामी बनते हुए एकवृष' बनें-अद्वितीय शक्तिशाली स्वामी बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top