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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 91/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - यक्षमनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्षमनाशन सूक्त
न्यग्वातो॑ वाति॒ न्यक्तपति॒ सूर्यः॑। नी॒चीन॑म॒घ्न्या दु॑हे॒ न्यग्भवतु ते॒ रपः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन्य᳡क् । वात॑: । वा॒ति॒ । न्य᳡क् । त॒प॒ति॒ । सूर्य॑: । नी॒चीन॑म् । अ॒घ्न्या । दु॒हे॒ । न्य᳡क् । भ॒व॒तु॒ । ते॒ । रप॑: ॥९१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न्यग्वातो वाति न्यक्तपति सूर्यः। नीचीनमघ्न्या दुहे न्यग्भवतु ते रपः ॥
स्वर रहित पद पाठन्यक् । वात: । वाति । न्यक् । तपति । सूर्य: । नीचीनम् । अघ्न्या । दुहे । न्यक् । भवतु । ते । रप: ॥९१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 91; मन्त्र » 2
विषय - न्यग् भवतु ते रपः
पदार्थ -
१. (वातः) = वाय (न्यक् वाति) = निम्न गति से चलता है, (सुर्य: न्यक् तपति) = सूर्य अवाङ्गमुख [नीचे] तपता है, (अघ्न्या) = अहन्तव्य गौ (नीचीनं दुहे) = दूध का अधोमुख दूहन करती है। २. जैसे ये वायु, सूर्य व अध्या न्यक्त्व धर्म से तपते हैं, उसी प्रकार हे व्याधित ! (ते रपः) = तेरा यह शरीर दोष (न्यक् भवतु) = अधोमुख हो, अर्थात् शान्त हो जाए।
भावार्थ -
जैसे वायु, सूर्य व असील गौ का कार्य निम्न गति से होता है, इसीप्रकार तेरा यह शरीर-दोष भी निम्न गतिवाला हो।
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