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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
सूक्त - यम
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्न नाशन
यत्स्वप्ने॒ अन्न॑म॒श्नामि॒ न प्रा॒तर॑धिग॒म्यते॑। सर्वं॒ तद॑स्तु मे शि॒वं न॒हि तद्दृ॒ष्यते॒ दिवा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । स्वप्ने॑ । अन्न॑म् । अ॒श्नामि॑ । न । प्रा॒त: । अ॒धि॒ऽग॒म्यते॑ । सर्व॑म् । तत् । अ॒स्तु॒ । मे॒ । शि॒वम् । न॒हि । तत् । दृ॒श्यते॑ । दिवा॑ ॥१०६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्स्वप्ने अन्नमश्नामि न प्रातरधिगम्यते। सर्वं तदस्तु मे शिवं नहि तद्दृष्यते दिवा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । स्वप्ने । अन्नम् । अश्नामि । न । प्रात: । अधिऽगम्यते । सर्वम् । तत् । अस्तु । मे । शिवम् । नहि । तत् । दृश्यते । दिवा ॥१०६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
विषय - स्वप्न की बात पर विश्वास न करना
पदार्थ -
१. (यत्) = जो (स्वप्ने) = स्वप्न में (अन्नम् अश्नामि) = अन्न खाता हूँ. प्(रात: न अधिगम्यते) = वह प्रातः जागने पर उपलब्ध नहीं होता। (सर्व तत्) = वह सब स्वप्नभुक्त अन्न (मे) = मेरे लिए (शिवं अस्तु) = कल्याणकर हो, (तद् दिवा नहि दृश्यते) = वह दिन में नहीं दीखता है, अर्थात् 'स्वप्न की बातें सत्य होती हों, ऐसा नहीं है, इससे स्वप्न के कारण घबराना नहीं चाहिए।
भावार्थ -
स्वप्न देखने पर हम शोक न करें। प्रत्युत अपने चित्त को दृढ़ करके स्वप्न की बात को 'असत्' समझें।
स्वप्न आदि की बातों से इतना प्रभावित न होनेवाला यह अपने को हिसित होने से बचाता हुआ 'प्रजापति' बनता हैं। अगले सूक्त का यही ऋषि है -
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