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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 106

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 106/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - जातवेदाः, वरुणः छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमृतत्व सूक्त

    यदस्मृ॑ति चकृ॒म किं चि॑दग्न उपारि॒म चर॑णे जातवेदः। ततः॑ पाहि॒ त्वं नः॑ प्रचेतः शु॒भे सखि॑भ्यो अमृत॒त्वम॑स्तु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अस्मृ॑ति । च॒कृ॒म । किम् । चि॒त् । अ॒ग्ने॒ । उ॒प॒ऽआ॒रि॒म । चर॑णे । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तत॑: । पा॒हि॒ । त्वम् । न॒: । प्र॒ऽचे॒त॒: । शु॒भे । सखि॑ऽभ्य: । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । अ॒स्तु॒ । न॒: ॥१११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदस्मृति चकृम किं चिदग्न उपारिम चरणे जातवेदः। ततः पाहि त्वं नः प्रचेतः शुभे सखिभ्यो अमृतत्वमस्तु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अस्मृति । चकृम । किम् । चित् । अग्ने । उपऽआरिम । चरणे । जातऽवेद: । तत: । पाहि । त्वम् । न: । प्रऽचेत: । शुभे । सखिऽभ्य: । अमृतऽत्वम् । अस्तु । न: ॥१११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 106; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १.हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (यत् किञ्चित्) = जो कुछ (अस्मृति) = कर्त्तव्य के स्मरण न होने के कारण (चकृम) = हम गलती कर बैठते है, अथवा हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! जो कुछ चरणे (उपारिम) = आचरण में दोष कर बैठते हैं, (ततः) = उस गलती से हे (प्रचेत:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले प्रभो! (त्वं नः पाहि) = आप हमें बचाइए। २. इसप्रकार दोषों के दूर होने पर (शुभे) = शुभ कार्यों के होने पर (न:) = हम (सखिभ्यः) =  सखाओं के लिए-परस्पर मित्रभाव को प्राप्स हम लोगों के लिए (अमृतत्वम् अस्तु) = अमृतत्व प्राप्त हो, नीरोगता प्राप्त हो।

    भावार्थ -

    हम अस्मरण के कारण यदि कुछ ग़लती कर जाएँ अथवा आचरण में दोषवाले हो जाएँ तो वे सर्वज्ञ प्रकाशमय प्रभु हमें उस गलती से बचाएँ। शुभ मार्ग पर चलते हुए हम अमृतत्व को प्राप्त करें।

    ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करके निष्पाप जीवनवाला 'भृगु' [भ्रस्ज पाके] अगले दो सूक्तों का ऋषि है -

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