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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 107

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 107/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुः देवता - सूर्यः, आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - संतरण

    अव॑ दि॒वस्ता॑रयन्ति स॒प्त सूर्य॑स्य र॒श्मयः॑। आपः॑ समु॒द्रिया॒ धारा॒स्तास्ते॑ श॒ल्यम॑सिस्रसन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । दि॒व: । ता॒र॒य॒न्ति॒ । स॒प्त । सूर्य॑स्य । र॒श्मय॑: । आप॑: । स॒मु॒द्रिया॑: । धारा॑: । ता: । ते॒ । श॒ल्यम् । अ॒सि॒स्र॒स॒न् ॥११२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मयः। आपः समुद्रिया धारास्तास्ते शल्यमसिस्रसन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । दिव: । तारयन्ति । सप्त । सूर्यस्य । रश्मय: । आप: । समुद्रिया: । धारा: । ता: । ते । शल्यम् । असिस्रसन् ॥११२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 107; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. एक ही सूर्य ['कश्यप'-पश्यक-सदा सबको देखनेवाला-प्रकाशित करनेवाला] है, वह "कश्यप' है। उसके अंशभूत सात सूर्य उसकी सात प्रकार की किरणें ही हैं [आरोगः, भ्राजः, पटरः, पतङ्गः, स्वर्णरः, ज्योतिषीमान्, विभास:]। ये (सूर्यस्य सप्त रश्मयः) = सर्य की सात किरणें परस्पर समेवत [मिली हुई] किरणे, (समुद्रियाः) = समुद्र से वाष्पीभूत होकर ऊपर उठे हुए तथा मेघरूप में परिणत हुए-हुए, (आप:) = जलों को (दिवः अवतारयन्ति) = युलोक से नीचे उतारती हैं, अर्थात् उन जलों का ये किरणें प्रवर्षण करनेवाली होती हैं। २. (ता:) = ये (धारा:) = धारारूप से गिरने वाले जल अथवा धारण करनेवाले जल (ते शल्यम्) = तेरे पीडाकारी कासश्लेष्मादि रोग को (असि स्त्रसन्) = [संसयन्तु विनाशयन्तु] विनष्ट करें अथवा अन्नोत्पादन द्वारा दुर्भिक्ष के कष्ट को दूर करें।

    भावार्थ -

    सूर्य-किरणें समुद्-जलों को वाष्मीभूत करके ऊपर ले-जाती हैं। वहाँ से वे उन्हें इस पृथिवी पर बरसाती हुई हमारे रोगों व दुर्भिक्षजनित कष्टों को दूर करती है।

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