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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 114/ मन्त्र 1
सूक्त - भार्गवः
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
आ ते॑ ददे व॒क्षणा॑भ्य॒ आ ते॒ऽहं हृद॑याद्ददे। आ ते॒ मुख॑स्य॒ सङ्का॑शा॒त्सर्वं॑ ते॒ वर्च॒ आ द॑दे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । द॒दे॒। व॒क्षणा॑भ्य: । आ । ते॒ । अ॒हम् । हृद॑यात् । द॒दे॒ । आ । ते॒ । मुख॑स्य । सम्ऽका॑शात् । सर्व॑म् । ते॒ । वर्च॑: । आ । द॒दे॒ ॥११९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते ददे वक्षणाभ्य आ तेऽहं हृदयाद्ददे। आ ते मुखस्य सङ्काशात्सर्वं ते वर्च आ ददे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । ददे। वक्षणाभ्य: । आ । ते । अहम् । हृदयात् । ददे । आ । ते । मुखस्य । सम्ऽकाशात् । सर्वम् । ते । वर्च: । आ । ददे ॥११९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 114; मन्त्र » 1
विषय - [अग्निषोमौ] शत्रु-निराकरण
पदार्थ -
१. राष्ट्र का संचालक [सभापति] 'अग्नि' है। राष्ट्र में न्याय-व्यवस्था का अध्यक्ष [मुख्य न्यायाधीश] 'सोम' है। अग्नि और सोम इन दोनों को मिलकर राष्ट्र का सुप्रबन्ध करना होता है। राजा राष्ट्र के शत्रु को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि मैं (ते वक्षणाभ्य:) = तेरी छाती के अवयवों से बल को (आददे) = छीन लेता हूँ। (अहम्) = मैं (ते हृदयात्) = तेरे हृदय से बल का (आददे) = अपहरण करता हूँ। २. (ते मुखस्य संकाशात्) = तेरे मुख की समीपता से [संकाश=nearmess](ते सर्व वर्चः आददे) = तेरे सारे तेज को छीन लेता हूँ, तुझे निस्तेज कर देता हूँ। [संकाश Appearance] तेरे चेहरे को निस्तेज कर देता हैं।
भावार्थ -
अग्नि और सोम दोनों को मिलकर राष्ट्र के शत्रु को उचित दण्ड-व्यवस्था द्वारा निस्तेज करना चाहिए।
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