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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 114

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
    सूक्त - भार्गवः देवता - अग्नीषोमौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    प्रेतो य॑न्तु॒ व्याध्यः॒ प्रानु॒ध्याः प्रो अश॑स्तयः। अ॒ग्नी र॑क्ष॒स्विनी॑र्हन्तु॒ सोमो॑ हन्तु दुरस्य॒तीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इ॒त: । य॒न्तु॒ । विऽआ॑ध्य: । प्र । अ॒नु॒ऽध्या: । प्रो इति॑ । अश॑स्तय: ।अ॒ग्नि: । र॒क्ष॒स्विनी॑: । ह॒न्तु॒ । सोम॑: । ह॒न्तु॒ । दु॒र॒स्य॒ती: ॥११९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेतो यन्तु व्याध्यः प्रानुध्याः प्रो अशस्तयः। अग्नी रक्षस्विनीर्हन्तु सोमो हन्तु दुरस्यतीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । इत: । यन्तु । विऽआध्य: । प्र । अनुऽध्या: । प्रो इति । अशस्तय: ।अग्नि: । रक्षस्विनी: । हन्तु । सोम: । हन्तु । दुरस्यती: ॥११९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 114; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. अग्नि ऐसा चाहता है कि (इत:) = यहाँ-इस राष्ट्र से (व्याध्यः) = सब रोग (प्रयन्तु) = दूर चले जाएँ। सफाई आदि की व्यवस्था इतनी ठीक हो कि रोग उत्पन्न ही न हो पाएँ। (अनुध्याः प्र) [यन्त] = सब अनुताप व दुश्चिन्तन दूर हों। (उ) = और (अशस्तयः प्र) = अस्तुतियों, परक्रतनिन्दाएँ व हिंसाएँ दूर हों। २. इसप्रकार (अग्नि:) = राष्ट्र का अग्रणी राजा राष्ट्र की (रभस्विनी:) = राक्षसी वृत्तिवाली शत्रु-सेनाओं को (हन्तु) = नष्ट करे तथा (सोमः) = सौम्य स्वभाववाला न्यायाधीश (दुरस्यती:) = [दुष्टं परेषाम् इच्छन्ती:] दूसरों का अशुभ चाहनेवाली प्रजाओं को (हन्तु) = राष्ट्र से दूर करे। ये अग्नि और सोम राष्ट्र के अन्त: व बाह्य शत्रुओं को दूर करके राष्ट्र को सुव्यवस्थित करें।

    भावार्थ -

    राष्ट्र से रोगों, अनुतापों, परनिन्दाओं व हिंसाओं को दूर करके सुव्यवस्थित किया जाए। अग्नि और सोम [राजा व न्यायाधीश] मिलकर राष्ट्र को बाहर व अन्दर के शत्रुओं से बचाएँ।

    सुव्यवस्थित राष्ट्र में लोग स्थिर मनोवृत्तिवाले [अथर्वा] तथा सरस अंगोंवाले [अंगिराः] शक्ति-सम्पन्न बनें। व्याधिरहित शरीरवाले, अनुतापरहित मनवाले ये 'अथर्वाङ्गिरा' अगले चार सूक्तों के ऋषि है -

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