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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 115/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - परोष्णिक्
सूक्तम् - ज्वरनाशन सूक्त
ए॒ता ए॑ना॒ व्याक॑रं खि॒ले गा विष्ठि॑ता इव। रम॑न्तां॒ पुण्या॑ ल॒क्ष्मीर्याः पा॒पीस्ता अ॑नीनशम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता: । ए॒ना॒: । वि॒ऽआक॑रम् । खि॒ले । गा: । विस्थि॑ता:ऽइव । रम॑न्ताम् । पुण्या॑: । ल॒क्ष्मी: । या: । पा॒पी: । ता: । अ॒नी॒न॒श॒म् ॥१२०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एता एना व्याकरं खिले गा विष्ठिता इव। रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्याः पापीस्ता अनीनशम् ॥
स्वर रहित पद पाठएता: । एना: । विऽआकरम् । खिले । गा: । विस्थिता:ऽइव । रमन्ताम् । पुण्या: । लक्ष्मी: । या: । पापी: । ता: । अनीनशम् ॥१२०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 115; मन्त्र » 4
विषय - रमन्तां पुण्याः लक्ष्मीः
पदार्थ -
१. (एता:) = ऊपर मन्त्र १ और २ में निर्दिष्ट (एना:) = मन्त्र तीन में अन्वादिष्ट लक्ष्मियों को (व्याकरम्) = स्पष्ट रूप से अलग-अलग करता हूँ। उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (खिले) = व्रज में [व्रजे-सा०] अथवा अनुपजाऊ भूमि पर (विष्ठिताः गा:) = मिलकर एक देश में स्थित गौओं को गोपाल उस-उस कार्य के लिए विवेकपूर्वक पृथक् करते हैं। २. उनमें (पुण्याः लक्ष्मी:) = जो कल्याणी लक्ष्मियाँ हैं, वे (रमन्ताम्) = मुझमें सुख से रहें। (याः पापी:) = जो पापकारिणी दुर्लक्ष्मियाँ हैं, (ताः अनीनशम्) = उन्हें अपने से दूर करता हूँ।
भावार्थ -
विवेकपूर्वक पापी लक्ष्मियों को हम अपने से दूर करें, शुभ लक्ष्मियों को ही अपने समीप रखनेवाले हों।
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