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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    सूक्त - शौनकः देवता - सभा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    वि॒द्म ते॑ सभे॒ नाम॑ न॒रिष्टा॒ नाम॒ वा अ॑सि। ये ते॒ के च॑ सभा॒सद॑स्ते मे सन्तु॒ सवा॑चसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्म । ते॒ । स॒भे॒ । नाम॑ । न॒रिष्टा॑ । नाम॑ । वै । अ॒सि॒ । ये । ते॒ । के । च॒ । स॒भा॒ऽसद॑: । ते । मे॒ । स॒न्तु॒ । सऽवा॑चस: ॥१३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्म ते सभे नाम नरिष्टा नाम वा असि। ये ते के च सभासदस्ते मे सन्तु सवाचसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विद्म । ते । सभे । नाम । नरिष्टा । नाम । वै । असि । ये । ते । के । च । सभाऽसद: । ते । मे । सन्तु । सऽवाचस: ॥१३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 12; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    हे (सभे) = सभे! (ते नाम विद्य) = तेरा नाम हम जानते हैं। तु वा निश्चय से (नरिष्टा नाम असि) = [न रिष्टा]'न हिंसित होनेवाली' इस नामावाली है। प्रजा से चुनी गई इस सभा को राजा अपनी मनमानी से भंग नहीं कर सकता। इसी से तु 'नर इष्टा' प्रजास्थ लोगों की प्रिय है। (ये के च) = जो कोई भी (ते सभासदः) = तेरे सभासद हैं, (ते) = वे (मे) = मेरे लिए (सवाचसः) = मिलकर वचनवाले, एक सम्मतिवाले (सन्तु) = हों। उनकी सम्मतियाँ परस्पर विरुद्ध होकर मेरी परेशानी का कारण न बनें।

    भावार्थ -

    सभा 'मरिष्टा' है-मनुष्यों की इष्ट है, उन्होंने ही इसके सदस्यों को चुना है। इसी से यह 'नरिष्टा' अहिंसित है, राजा अपनी इच्छा से इसे भंग नहीं कर सकता। सभासदों को चाहिए कि वे विचार करके राजा को एक ही सम्मति दें।

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