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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रध्नः, उषाः
छन्दः - द्विपदैकावसाना विराड्गायत्री
सूक्तम् - ज्योति सूक्त
अ॒यं स॒हस्र॒मा नो॑ दृ॒शे क॑वी॒नां म॒तिर्ज्योति॒र्विध॑र्मणि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स॒हस्र॑म् । आ । न॒: । दृ॒शे । क॒वी॒नाम् । म॒ति: । ज्योति॑: । विऽध॑र्मणि॥ २३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं सहस्रमा नो दृशे कवीनां मतिर्ज्योतिर्विधर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । सहस्रम् । आ । न: । दृशे । कवीनाम् । मति: । ज्योति: । विऽधर्मणि॥ २३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
विषय - कवीनां मतिः
पदार्थ -
१. (अयम्) = ये प्रभु (सहस्त्रम्) = सहस्रसंवत्सर कालपर्यन्त (दृशे) = दर्शन के लिए, ज्ञान-प्रदान के लिए (नः आ) [भवतु] = हमें प्राप्त हों। हम सदा प्रभु से ज्ञान प्राप्त करनेवाले बनें और दीर्घजीवी हों। वे प्रभु (कवीनां मति:) = ज्ञानी पुरुषों से माननीय हैं। (विधर्मणि) = विविध धर्मों में वे हमारे (ज्योति:) = प्रकाश हैं, मार्गदर्शक हैं।
भावार्थ -
हम प्रभु से प्रकाश प्रास करते हुए दीर्घकाल तक जीवन-धारण करें। वे प्रभु ज्ञानियों से मननीय हैं, और विविध धर्मों में मार्गदर्शक हैं।
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