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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रध्नः, उषाः
छन्दः - त्रिपदानुष्टुप्
सूक्तम् - ज्योति सूक्त
ब्र॒ध्नः स॒मीची॑रु॒षसः॒ समै॑रयन्। अ॑रे॒पसः॒ सचे॑तसः॒ स्वस॑रे मन्यु॒मत्त॑माश्चि॒ते गोः ॥
स्वर सहित पद पाठब॒ध्न:। स॒मीची॑: । उ॒षस॑: । सम् । ऐ॒र॒य॒न् । अ॒रे॒पस॑: । सऽचे॑तस: । स्वस॑रे । म॒न्यु॒मत्ऽत॑मा: । चि॒ते । गो: ॥२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रध्नः समीचीरुषसः समैरयन्। अरेपसः सचेतसः स्वसरे मन्युमत्तमाश्चिते गोः ॥
स्वर रहित पद पाठबध्न:। समीची: । उषस: । सम् । ऐरयन् । अरेपस: । सऽचेतस: । स्वसरे । मन्युमत्ऽतमा: । चिते । गो: ॥२३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
विषय - कैसी उषाएँ
पदार्थ -
१. (ब्रध्न:) = सबको अपने-अपने कर्मों में बाँधनेवाला सूर्य (उषस: समैरयन्) = [त्]-उषाओं को प्रेरित करे। उन उषाओं को जोकि (समीची:) = सम्यक् गतिवाली हैं, जिनमें हम अपने नित्य कर्मों को ठीक प्रकार प्रारम्भ कर देते हैं, (अरेपसः) = जो पापशून्य हैं, जिनमें प्रभुस्मरण से हम पापवृत्ति को विनष्ट करते हैं। (सचेतसः) = ज्ञान से युक्त हैं, जिनमें हम स्वाध्याय द्वारा ज्ञान का वर्धन करते हैं। २. जो उषाएँ (स्वसरे) = दिन में [अहर्नामैतत्] (मन्युमत्तमा:) = अतिशयेन दीप्तिवाली हैं और जो (गो: चिते) = ज्ञान की वाणी के चयन के लिए हैं। जिन उषाओं में हम खुब ही ज्ञान का संचय करते हैं।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हमारे लिए उन उषाओं का उदय हो, जिनमें हम क्रियाशील, निष्पाप, ज्ञानवाले व वेदवाणी का चयन करनेवाले बनते हैं।
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