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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
अ॒या वि॒ष्ठा ज॒नय॒न्कर्व॑राणि॒ स हि घृणि॑रु॒रुर्वरा॑य गा॒तुः। स प्र॒त्युदै॑द्ध॒रुणं॒ मध्वो॒ अग्रं॒ स्वया॑ त॒न्वा त॒न्वमैरयत ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒या । वि॒ऽस्था । ज॒नय॑न् । कर्व॑राणि । स: । हि । घृणि॑: । उ॒रु: । वरा॑य । गा॒तु: । स: । प्र॒ति॒ऽउदै॑त् । ध॒रुण॑म् । मध्व॑: । अग्र॑म् । स्वया॑ । त॒न्वा᳡ । त॒न्व᳡म् । ऐ॒र॒य॒त॒ ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अया विष्ठा जनयन्कर्वराणि स हि घृणिरुरुर्वराय गातुः। स प्रत्युदैद्धरुणं मध्वो अग्रं स्वया तन्वा तन्वमैरयत ॥
स्वर रहित पद पाठअया । विऽस्था । जनयन् । कर्वराणि । स: । हि । घृणि: । उरु: । वराय । गातु: । स: । प्रतिऽउदैत् । धरुणम् । मध्व: । अग्रम् । स्वया । तन्वा । तन्वम् । ऐरयत ॥३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
विषय - विष्ठा:-घृणिः
पदार्थ -
१. (विष्ठा) [विष्ठाः] = विशेषरूप से सर्वत्र स्थितिवाले वे प्रभु (अया) = इस प्रकृति के द्वारा (कर्वराणि जनयन्) = सब कर्मों को प्रादुर्भूत कर रहे हैं। सब क्रियाएँ प्रकृति में ही होती हैं, इन क्रियाओं को प्रभु प्रादुर्भूत करते हैं। (सः हि घृणि:) = वे प्रभु ही प्रकाशमान व दीस हैं। (उरु:) = विशाल हैं, (वराय गातुः) = वरणीय कर्मफल के लिए प्रभु ही मार्ग हैं, अर्थात् यदि हम सब प्रभ के निर्देश के अनसार चलेंगे तो वरणीय उत्तम फलों को प्राप्त करेंगे। २. (सः) = वे प्रभु ही (धरुणम्) = सबका धारण करनेवाले (मध्वः अग्रम्) = मधुर वेदज्ञान के सार को (प्रत्यदैत) = [अन्तर्भावितण्यर्थ:]-स्तोताओं के लिए प्रकाशित करते हैं, और (स्वया तन्वा) = अपने विराडात्मक शरीर से (तन्वम्) = समस्त प्राणिशरीरों को (ऐरयत) = प्रेरित करते हैं-प्रभु विराट् पिण्ड से सब प्राणिशरीरों को उत्पन्न करते हैं।
भावार्थ -
सर्वत्र व्यास व दीप्त प्रभु विरापिण्ड से सब प्राणियों के शरीरों का निर्माण करते हैं, वे हमें धारणात्मक वेदज्ञान प्राप्त कराते हैं। यदि हम वेद के निर्देश के अनुसार चलते हैं तो वरणीय फलों को प्रास करते हैं।
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