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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
एक॑या च द॒शभि॑श्च सुहुते॒ द्वाभ्या॑मि॒ष्टये॑ विंश॒त्या च॑। ति॒सृभि॑श्च॒ वह॑से त्रिं॒शता॑ च वि॒युग्भि॑र्वाय इ॒ह ता वि मु॑ञ्च ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑या । च॒ । द॒शभि॑: । च॒ । सु॒ऽहु॒ते॒ । द्वाभ्या॑म् । इ॒ष्टये॑ । विं॒श॒त्या । च॒ । ति॒सृऽभि॑: । च॒ । वह॑से । त्रिं॒शता॑ । च॒ । वि॒युक्ऽभि॑: । वा॒यो॒ इति॑ । इ॒ह । ता: । वि । मु॒ञ्च॒ ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एकया च दशभिश्च सुहुते द्वाभ्यामिष्टये विंशत्या च। तिसृभिश्च वहसे त्रिंशता च वियुग्भिर्वाय इह ता वि मुञ्च ॥
स्वर रहित पद पाठएकया । च । दशभि: । च । सुऽहुते । द्वाभ्याम् । इष्टये । विंशत्या । च । तिसृऽभि: । च । वहसे । त्रिंशता । च । वियुक्ऽभि: । वायो इति । इह । ता: । वि । मुञ्च ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
विषय - तेतीस बड़वाओं का विमोचन
पदार्थ -
१.हे (वायो) = आत्मन्! [वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तर शरीरम्]! तू इस शरीर में (सुहते) = जिसमें चारों ओर प्रभु के उत्तम दान विद्यमान हैं, (एकया च दशभिः च) = एक और दस, अर्थात् ११ पृथिवीस्थ देवताओं के अंशों से, (द्वाभ्यां विंशत्या च) = दो और बीस, अर्थात् पृथिवीस्थ और अन्तरिक्षस्थ बाईस देवांशों से (तिसृभिः च त्रिंशता च) = तीन और तीस, अर्थात प्रथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोकस्थ देवताओं से [ये अन्तरिक्ष एकादशस्थ ये पृथिव्यामेकादशस्थ ये दिव्येकादशस्थ०] जो इस शरीररथ की (वियुग्भि:) = [विशेषेण युज्यन्ते रथे] बड़वाएँ हैं, उनसे वहसे इस शरीर-रथ का मार्ग पर वहन करता है। २. तू इसप्रकार इनके द्वारा रथ का वहन कर कि यात्रा को पूर्ण करके (ता:) = उन्हें (इह) = यहाँ ही (विमुञ्च) = खोल देवे । जीवन-यात्रा को पूर्ण कर लेने से उनकी आवश्यकता ही न रह जाए। प्रभु शरीर-रथ को इस यात्रा की पूर्ति के लिए ही तो देते हैं, और इसमें सब देवांशों का स्थापन करते हैं ('सर्वा ह्यस्मिन्देवता गावो गोष्ठ इवासते')। ये देवांश इस शरीर-रथ के घोड़े हैं। यात्रा पूर्ण हुई और ये अनावश्यक हो गये। यही इनका खोल देना है, यही मुक्ति है।
भावार्थ -
इस शरीर-रथ में सर्वत्र प्रभु के अद्भुत दान विद्यमान हैं। इस शरीर-रथ में प्रभु ने तेतीस देवताओं के अंशों को घोड़ियों के रूप में जोता है। इस यात्रा को पूर्ण करके हम इसी जीवन में इन्हें खोलनेवाले बनें।
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